Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 05
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 221
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्य पन सूत्रम् ॥१३२३।।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांवर अध्य०२३ अर्थः- चोवीसमा तीर्थंकर श्रीवर्धमान स्वामीए जे अचेलक धर्मअमुक प्रमाण ( माप)थी युक्त अने लगभग जूनुं घोळं व धारण करवारूप साधुओनो अचार को छं. चवळी महायशस्वी वसमा तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथ स्वामीए जे आ सांतरोतर धर्मपांच रंगवा, घणा मूल्यवाळु, अने अमुक प्रमाण वगरनुं वस्त्र धारण करवारूप साधुओनो आचार दर्शाव्यो छे, त्यां हे मेधावी । ४ ॥१३२३४ | मोक्षरूप एक कार्यमा प्रवृत्त थयेला महावीरस्वामी तथा श्रीपार्श्वनाथ स्वामीन। विशेषे धर्मना तफावतमां किं कारणं ? शुं कारण छे? हे गौतम! द्विविधे लिंगे मे प्रकारना साधुवेपमां ते आपने कथं- कंम विप्रत्यय उत्पन्न थतो नथी १ केम संदेह थतो नयी ! पण तीर्थकरो मोक्षरूप ए कार्यने सिद्ध करनारा छे, तो तेओए बेष भेद-वेषमां तफावत कम प्रकट कर्यो छे १ एम आपने आ संशय केम थतो नथी १ ।। २५५ ३० ॥ मू० - केसि एवं बुवंताणं गोयमो इणमब्बवी ॥ विन्नाणेण समागत । धम्मसाहणमिच्छयं ॥ ३१ ॥ अर्थ :- श्रीगौतमे एम बोलता श्रीकेशी कुमरने श्राश्रीतीर्थको केवलज्ञानधी आणीने धर्मनुं साधन स्वीकार्य छे. ॥ ३१ ॥ व्या- तु पुनर्गौतम एवं बुवाणं केशीकुमारं मुनिमिदमब्रवीत्, हे केशीमुने । तीर्थकरैर्विज्ञानेन विशिष्टज्ञानेन | केवलज्ञानेन समागम्य पद्यग्रस्योचितं तत्तथेव ज्ञात्वा धर्मसाधनं धर्मोपकरणं वर्षाकल्पादि, इदमृजुप्राज्ञयोग्यं, इदं च वक्रजडयोग्यमितीप्सिनमनुमतमिष्टं कथितमिति यावत् यतो हि वीरशिष्याणां रक्तवर्णादिवत्रानुज्ञाने वजडत्वेन रंजनादिषु प्रवृत्तिदुर्निवारैव स्यात्. पार्श्वनाथशिष्यास्तु ऋजुप्राज्ञत्वेन शरीराच्छादनमात्रेण प्रयोजनं जानंति, न च ते किंचित्कदाग्रहं कुर्वति. ॥ ३१ ॥ For Private and Personal Use Only

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