Book Title: Updeshsaptatika
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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उपदेश
॥२२४॥
तच बुध पिच सहरि ॥ ३० ॥ सजाय नवि जातिय जं जाणिय तं पुए न वियाथिय । एरिस असमंजस तञ्जासिय निमुयि माइपियर उञ्जासिय ॥ ३९ ॥ वल कई एरिस तवं जंप तो श्रमुत्तच बोल तं एवस परमत्थ महंत तुम्हि बुझन मई पयमिलन ॥ ४० ॥ जल जायच तर नित्र मरई पुन्नपात्रसयिि अणुसरई । तं न मुणि जं पुण किशिखणि जीव परस्सर पुरि बाहिरि वषि ॥ ५१ ॥ नवि बुलचं कुणसन्नं जिल गर नरयमनि तिहिं डुकिय इ 1 जाएवं पुरा सो वेढिय कम्मिहिं जाइ सही संकित धम्महिं ॥ ४२ ॥ घात तो अस्कर राया मिलिय माया जाया संचलित खदु य । कह चरण चरंसी का करेसी खुद पिवास कुछ बय * ॥ ४३ ॥ नास - तुद्द पचमपत्तसुकुमासदेह लायन्नपुन ननु सुरक गेह । खग्गधारतिरका पुर्ण दिरका कह मग्निसि घरि परिपुरि निरका ॥ ४४ ॥ पंचमहवयमेरु धरेवा जुयवति निय सिरिखोयकरेगा । दुसह परीसह अंगि सदेवा डुरकसुरक नागार कद्देवा ॥ ४५ ॥ समित्त त गोवा विषयगुणिहिं सुत्तत्थ जणेचा । डुक्कर किरिय करिसु त केम व सुरक छवि सुर जेभ ॥ ४६ ॥ त्तभोग चारित घरे जे रहि धरि नंदण रक्षा करे जे । कहड़ कुमार किंपि न ईउन धीर नरह सर्व पि सुवत || 89 वर गिरि नुयवक्षि उप्पारु मेरुसिहरि अप्पल पर्छ वाकड़ । गयणमग्गि चरबलि च सेसनाग नियकंविदि घनइ ॥ ४८ ॥ तिय जण नयपद विए कह जंतं का पसादइ । श्य श्रमुत्त यव (ग) इ पि श्रग्गर डुक्करदिरक सिरक सो मग्गइ || ४ || उत्तावत्तवाल न किकर कित्तिय काल विलंब वहिबार । ३4 जी जयपि जणय तं बुनाई पुत्तविरह जाणी मनि मुखई ॥ ५० ॥ ताव कुमार कहइ जो निमुह जीविध
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सप्ततिका.
॥ २२४ ॥

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