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(३१) बहुत मत कहो, मत कहो क्योंकि उन जीवों के लिए जिनवाणी का हितोपदेश महा दोष रूप है जो चिकने कर्मों से बंधे हुए हैं । । १२५ ।। (३२) वे जीव धर्म के वचनों से कुछ नहीं समझ पाते जो हृदय अशुद्ध हैं सो उन्हें समझाने के लिए जो गुणवान प्रयत्न करता है वह निरर्थक ही अपनी आत्मा का दमन करता है अर्थात् उसे कष्ट देता है । । १२६ । । (३३) कई जीव जिनराज के वचनों को तो मानते ही नहीं परन्तु बाहर में उनकी वंदना-पूजा बहुत करते हैं तो उनकी वंदना - पूजा कार्यकारी नहीं है । । १३१ । ।
(३४) यदि तुम वांछित कार्य मोक्ष की सिद्धि चाहते हो तो जिनदेव के वचनों को पहले मानो | | १३२ । ।
(३५) जिनराज के द्वारा कहा गया शास्त्र का व्यवहार परमार्थ धर्म को साधने वाला है अर्थात् वह परमार्थ के स्वरूप को पृथक् दिखाता है। शास्त्राभ्यास रूप व्यवहार से परमार्थ रूप वीतराग धर्म की प्राप्ति होती है. ऐसा जानना | |१३८ । ।
(३६) शास्त्र के ज्ञानियों द्वारा ही उन मूर्ख जीवों मिथ्या परिणति जानी जाती है जो सब गुरु, श्रावक और जिनबिम्बों के एक होते हुए भी जिनद्रव्य अर्थात् चैत्यालय के द्रव्य को परस्पर में खर्च नहीं करते । । १५० - १५१ ।। (३७) जिनवचनों को पाकर भी यदि किसी को हित-अहित का ज्ञान नहीं हुआ तो जानना कि उसके मिथ्यात्व का तीव्र उदय है । । १५३ ।।
(३८) इस लोक में बंधन और मरण के भयादि का दुःख तीव्र दुःख नहीं है । दुःखों में दुःख का निधान तो जिनवचन की विराधना करना है । । १५४ । । (३९) ग्रंथकार कहते हैं कि 'यद्यपि मैं उतम श्रावक की पैड़ी पर चढ़ने में असमर्थ हूँ तथापि जिनवचनों के अनुसार करने का मनोरथ मेरे हृदय में सदा बना रहता है' । । १५६ । ।
(४०) 'जिनवचन रूपी रत्नों को ग्रहण करने का मुझे सदा अत्यन्त लोभ हो' - ऐसी प्रभु के चरणों को परमभाव से नमस्कार करके ग्रन्थकार ने इष्ट प्रार्थना की है । । १५७ ।।
(४१) इस ग्रंथ में श्री नेमिचन्द जी द्वारा रचित ये कुछ गाथाएँ हैं उनको हे भव्य जीवों ! तुम पढ़ो, जानो और कल्याण रूप मोक्ष पद प्राप्त करो | | १६१ । ।
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