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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
भव्य जीव
उत्सूत्रभाषी के दुःख जिननाथ ही जानते हैं इयरजण संसणाए, धिद्धी उस्सूत्त भासिए ण भयं। हा! हा! ताण णराणं, दुहाइ जइ मुणइ जिणणाहो।। ५६।।
अर्थ:- इतर जनों से प्रशंसा चाहने के लोभ से अर्थात् 'मुझे सब अच्छा कहेंगे' इस अभिप्राय से जो जिनसूत्र के विरुद्ध बोलने से नहीं डरते उन्हें धिक्कार है, धिक्कार है। हाय! हाय !! उन जीवों को परभव में जो दुःख होंगे उन्हें यदि जानते हैं तो केवली भगवान ही जानते हैं ।।
भावार्थ:- थोड़े से दिनों की मान-बड़ाई के लिये जो जीव अन्य मूर्यों के कहने से जिनसूत्र के विरुद्ध उपदेश देता है वह अनंत काल तक निगोदादि के दुःख पाता है इसलिये जिनसूत्र के अनुसार ही यथार्थ उपदेश देना योग्य है।। ५६ ।।
__धीर पुरुष कदापि उत्सूत्रभाषी नहीं होते उस्सूत्त भासियाणं, बोही णासो अणंत संसारो। पाणव्वए वि धीरा, उस्सूत्तता ण भासंति।। ५७।। अर्थ:- जो जीव जिनसूत्र का उल्लंघन करके उपदेश देते हैं उनके सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति रूपी बोधि का नाश हो जाता है और अनंत संसार बढ़ जाता है इसलिये प्राणों का नाश होते भी धीर पुरुष तो जिनसूत्र के विरुद्ध कदापि नहीं बोलते ।। ५७ ।। जान
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