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और लौकिक बातें तो सब ही जानते हैं और वैसे ही 'चौहटे में पड़ा रत्न भी पाया जाता है परन्तु हे भाई ! जिनभाषित धर्म रुपी रत्न का सम्यग्ज्ञान दुर्लभ है अतः_ जैसे-तैसे भी जिनधर्म का स्वरूप जानना योग्य है।
धर्मार्थी होकर धर्म का सेवन करना दुर्लभ है। लौकिक
प्रयोजन के लिए जो धर्म का सेवन करते हैं सो नाम मात्र सेवन करते हैं अत: धर्म सेवन का गुण जो वीतराग भाव है उसको वे नहीं पाते सो ऐसे जीव बहुत ही हैं।
शास्त्र श्रवण की पद्धति रखने के लिए जिस-तिस के
मुख से धर्म को न सुनना, या तो निर्ग्रन्थ आचार्य के निकट सनना अथवा उन ही के अनसार कहने वाले श्रद्धानी श्रावक के मुख से सुनना तब ही सत्यार्थ श्रद्धान रूप फल शास्त्र श्रवण से उत्पन्न होगा।
IMILAMILANILAIMAMITAMILAMILANIMALINI