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निरपेक्ष धर्म सेवन करना योग्य है। जिनराज की आज्ञा रहित और क्रोधादि कषायों से संयुक्त अपनी प्रशंसा के लिए जो धर्म का सेवन करते हैं उनका यश-कीर्तन नहीं होता और
धर्म भी नहीं
होता।
आज जिनधर्म की विरलता इस निकृष्ट काल में भाग्यहीन जीवों की उत्पत्ति के कारण है,धर्म कुछ
हीन नहीं
ज्ञानिजन वीतराग भाव रूप जिनधर्म को ही सुख का कारण
मानते हैं।
जीवों का हित सुख है और वह सुख धर्म से होता है इसलिए जो धर्म का उपदेश देता है। वह ही परम हितकारी है तथा अन्य जो स्त्रीपुत्रादि हैं वे हितकारी नहीं हैं क्योंकि मोहादि के
कारण हैं।
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