________________
श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
जिनेन्द्र की श्रद्धा की महिमा
इण कुणसि तवयरणं, ण पढसि ण गुणसि ददासि णो दाणं । ता इत्तियं ण सक्कसि, जं देवो इक्क अरिहन्तो ।। २॥
अर्थ :- हे भाई! यदि अपनी शक्ति की हीनता के कारण तू तपश्चरण नहीं करता है, विशेष अध्ययन नहीं करता है, न ही विचार करता है तथा दान भी नहीं करता है तो ये सब कार्य तू भले ही मत कर परन्तु एक सर्वज्ञ वीतराग देव की श्रद्धा तो दृढ़ रख क्योंकि जिस कार्य को करने के लिये अकेले एक अरिहन्त देव समर्थ हैं उस कार्य को करने के लिये ये तपश्चरणादि कोई भी समर्थ नहीं हैं ।।
भावार्थ:- जो पुरुष अपनी शक्ति की हीनता के कारण तपश्चरण आदि तो नहीं करता है परन्तु 'भगवान अरिहन्त देव ने जो कहा है वह ही सत्यार्थ है - इस प्रकार अरिहन्त भगवान के मत का श्रद्धान करता है वह पुरुष मोक्षमार्गी ही है और अरिहन्त भगवान के मत की श्रद्धा किये बिना यदि घोर तपश्चरणादि करे तो भी विशेष फल नहीं मिलता इसलिये जितनी अपनी शक्ति हो उतना कार्य करना और जिस कार्य को करने की शक्ति नहीं हो उसका श्रद्धान करना । श्रद्धान ही मुख्य धर्म है - ऐसा जानना ।। २।।
देवों को नमन करने वाला ठगाया गया
रे जीव ! भव दुहाई, इक्कु चिय हरइ जिणमयं धम्मं । इयराणं पणमंतो, सुह कज्जे मूढ ! मुसिओसि । । ३ । ।
३
भव्य जीव