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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भावार्थ:- जीव तीव्र मिथ्यादृष्टि है उसे धर्म का निमित्त मिले तो भी उसकी धर्मबुद्धि नहीं होती, इसी प्रकार जो दृढ़
श्रद्धानी है उसे पाप का निमित्त मिलने पर भी पापबुद्धि नहीं होती किन्तु भोले अर्थात् मध्यम परिणाम वाले जीवों को जैसा निमित्त मिले वैसे परिणाम हो जाते हैं ।। २८ ।।
यही बात फिर कहते हैं :
उत्कृष्ट पुण्य-पाप संगति से नहीं होते
अइसय पावी जीवा, धम्मिय पव्वेसु ते वि पावरया । चलंत सुद्ध धम्मा, धण्णा किवि पाव पव्वेसु ।। २६ ।।
अर्थः- जो अत्यन्त पापी जीव हैं वे धर्म पर्वों में भी पाप में रत होते हैं और जो शुद्ध धर्मात्मा हैं अर्थात् निर्मल श्रद्धानी हैं वे किसी भी पाप पर्व में धर्म से चलित नहीं होते । । २६ । ।
अब धन को निमित्त के वश से गुण-दोष का कारण बतलाते हैं :धन के दो प्रकार
लच्छी वि हवइ दुविहा, एगा पुरिसाण खवइ गुणरिद्धिं । एगाय उल्लसंती, अपुण्ण-पुण्णप्पभावाओ । । ३० ।।
अर्थ:- लक्ष्मी भी दो प्रकार की होती है- एक तो विषय भोगों में लगने से पाप के योग से जीव की सम्यक्त्वादि गुण रूपी ऋद्धियों का नाश करती है और एक लक्ष्मी ऐसी है जो दान-पूजादि पुण्य
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भव्य जीव