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उपदेश सिद्धान्त श्री रत्नमाला
श्रा
नेमिचंद भंडारी कृत
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श्री नेमिचंद जी
भव्य जीव
जिनदेव को पाकर भी मिथ्यात्व क्यों नहीं जाता जिणगुण' रयण महाणिहि, लखूण वि किं ण जाइ मिच्छत्तं। अह लद्धे वि णिहाणे, किवणाण पुणो वि दारिदं ।।२५।। I
अर्थः- जिनेन्द्र भगवान के गुण रूपी रत्नों का बड़ा भंडार प्राप्त । करके भी मिथ्यात्व क्यों नहीं जाता है-यह महान आश्चर्य है अथवा निधान पा करके भी कृपण पुरुष तो दरिद्री ही रहता है, इसमें क्या आश्चर्य है।।
भावार्थ:- जिनराज को पाकर भी यदि मिथ्यात्व भाव नहीं जाता है तो बड़ा आश्चर्य है अथवा जिसकी भली होनहार नहीं है उसका ऐसा ही स्वभाव है-ऐसा जानकर संतोष करना ।। २५ ।।
आगे जिन्होंने सम्यक्त्व होने के कारण रूप धर्म पर्व स्थापित किये हैं उनकी प्रशंसा करते हैं :
धार्मिक पर्यों के स्थापकों की प्रशंसा सो जयउ जेण विहिआ, संवच्छर चाउमासिय सुपव्वा। जिंदजणाण जायइ, जस्स पहावो धम्ममई।।२६।। अर्थः- वे महापुरुष जयवन्त हों जिन्होंने उन सांवत्सरिक तथा चातुर्मासिक अर्थात् दशलक्षण एवं अष्टान्हिका आदि धर्म के पर्यों का विधान किया जिनके प्रभाव से निन्दनीय पापी पुरुष भी धर्मबुद्धि वाले हो जाते हैं।।
१. टि–'जिणमय' शब्द समुचित जान पड़ता है जिसका अर्थ है-जिनमत। २. अर्थ-वार्षिक।
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