________________
उपदेश सिद्धान्त श्री रत्नमाला
श्रा
नेमिचंद भंडारी कृत
R
भव्य जीव
F
RY और यदि ऐसे गुरु का संयोग न बने तो निर्ग्रन्थ गुरुओं श्री नेमिचंद जी के ही उपदेश को कहने वाले श्रद्धानी श्रावक से धर्म सुनना
चाहिये।।
भावार्थ:- शास्त्र श्रवण की पद्धति रखने के लिये जिस-तिस के मुख से शास्त्र नहीं सुनना, या तो निर्ग्रन्थ आचार्य के निकट सुनना या उन ही की आज्ञानुसार कहने वाले श्रद्धानी श्रावक के मुख से सुनना तब ही सत्यार्थ श्रद्धान रूप फल शास्त्र श्रवण से उत्पन्न होगा अन्यथ नहीं ।। २३।।
सम्यक् कथा, उपदेश व ज्ञान की पहिचान सा कहा सो उवएसो, तं णाणं जेण जाणइ जीवो। सम्मत्त-मिच्छ भावं, गुरु-अगुरु लोय-धम्मठिदी।।२४।। अर्थः- वही तो कथा है और वही उपदेश है और वही ज्ञान है जिसके द्वारा जीव सम्यक्-मिथ्या भाव को जान ले तथा गुरु-कुगुरु का स्वरूप जान ले तथा लोकरीति' और धर्म का स्वरूप जान ले ।।
भावार्थ:- जिनके द्वारा हित-अहित का ज्ञान हो ऐसे जैन शास्त्र ही सुनना, अन्य जो रागादि को बढ़ाने वाले मिथ्या शास्त्र हैं वे सुनने योग्य नहीं हैं।। २४ ।।
-
१. अर्थ-लोकमूढ़ता।
१७