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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
भव्य जीव
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के कारण जो पुत्रादि हैं उनका स्नेह करते हैं-यह मोह । का ही माहात्म्य है।। १६||
विश्राम का वास्तविक स्थान धर्म ही है गिहवावार परिस्सम, खिण्णाण णराण वीसमट्ठाणं। एगाण होइ रमणी, अण्णेसि जिणिंद वरधम्मो।।२०।। अर्थः- गृह-व्यापार के परिश्रम से खेदखिन्न कितने ही अज्ञानी जीवों का विश्राम स्थान एक स्त्री ही है और ज्ञानी जीवों का तो जिनेन्द्रभाषित श्रेष्ठ धर्म ही विश्राम का स्थान है।।
भावार्थ:- अज्ञानी जीव स्त्री आदि पदार्थों को ही सुख का कारण मानते हैं किन्तु ज्ञानी जीव तो वीतरागभाव रूप जैनधर्म को सुख का कारण मानते हैं || २०।।
___ ज्ञानी-अज्ञानी की क्रिया-फल में अन्तर तुल्ले वि उअर भरणे, मूढ अमूढाण पिच्छ सुविवागं। एगाण णरय दुक्खं, अण्णेसिं सासयं सुक्खं ।।२१।। अर्थः- उदर भरने में समानता होने पर भी ज्ञानी और अज्ञानी की क्रिया के फल में अन्तर तो देखो-एक को तो नरक का दुःख प्राप्त होता है और दूसरे को शाश्वत सुख प्राप्त होता है।।
भावार्थ:- उदर भरकर अपनी पर्याय तो ज्ञानी और अज्ञानी दोनों | सार ही पूरी करते हैं परन्तु अज्ञानी तो अत्यन्त आसक्तपने के कारण नरकात
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