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उपदेश सिद्धान्त श्री रत्नमाला
श्रा
नेमिचंद भंडारी कृत
पश्चात् जिनधर्म को प्राप्त करना अतिशय कठिन हो जाता श्री नेमिचंद जी है इसलिए अपनी पद्धति बढ़ाने के लिये अथवा मानादि कषायों भव्य जीवा
का पोषण करने के लिये जिनवाणी के सिवाय रंच मात्र भी उपदेश देना योग्य नहीं है || ११||
मन्दिर जी का द्रव्य बरतने वाला महापापी है जिणवर आणा रहिअं, वट्टारता वि केवि जिणदव्वं । वुड्डंति भव-समुद्दे, मूढा मोहेण अण्णाणी।।१२।। अर्थः- कई पुरुष जिनाज्ञा रहित जिनद्रव्य अर्थात् मन्दिर जी के द्रव्य को अपने प्रयोग में लेते हैं वे अज्ञानी मोह से संसार समुद्र में डूबते हैं।।
भावार्थ:- कई जीव मन्दिर जी के द्रव्य से व्यापार करते हैं और कई उधार लेकर आजीविका करते हैं वे जिनाज्ञा से पराङ्मुख हैं एवं अज्ञानी हैं। वे जीव महापाप बांधकर संसार में डूबते हैं ।। १२ ।।
१. टि-सागर प्रति में इस गाथा का अर्थ व भावार्थ निम्न प्रकार दिया है:अर्थ:- जिनवर की आज्ञा से रहित होकर कोई मूढ़ पुरुष जिनद्रव्य अर्थात् जिनमार्ग के द्रव्यलिंग रूप दिगम्बर वेष को धारण करता हुआ मिथ्यात्व से अज्ञानी रहता हुआ भव समुद्र में ही डूबता है।। भावार्थ:- जिनवर की आज्ञानुसार सम्यग्दर्शनादि धारण किये बिना जिनमार्ग के द्रव्यलिंग को धारण कर लेने मात्र से जीव का कल्याण नहीं होता। मोह से अज्ञानी मूढ़ जीव द्रव्यलिंग को धारण कर लेने पर भी संसार में ही भटकता है इसलिए प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करने का उपदेश है। जिनमार्ग में पहिले सम्यक्त्व होता है पश्चात् मुनिव्रत होता है-ऐसा क्रम है|| १२||
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