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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
मिथ्यात्व का एक अंश भी विद्यमान हो तो जीव सम्यक् दर्शन - ज्ञान - चारित्र एवं तपमयी बोधि को प्राप्त नहीं कर पाता है। भावार्थ:- कोई जीव व्यापारादि को छोड़कर जिनाज्ञा से विरुद्ध आचरण करता हुआ भी अपने को गुरु मानता है उसको कहते हैं कि 'व्यापारादि के आरंभ से जो पाप होता है उससे जीव नरकादि का दुःख तो पाता है पर उसे कदाचित् मोक्षमार्ग की प्राप्ति हो जाती है परन्तु जिनवाणी के अश्रद्धान रूप मिथ्यात्व के एक अंश के भी विद्यमान रहते हुए मोक्षमार्ग अतिशय दुर्लभ होता है इस कारण से मिथ्यात्व सब पापों में बड़ा पाप है ।। १० ।।
उत्सूत्रभाषण से जिनाज्ञा का भंग
जिणवर आणा भंगं, उमग्ग- उस्सुत्त लेस देसणयं । आणा भंगे पावं, ता जिणमयं दुक्करं धम्मं । ।११ । ।
अर्थः- जिन आज्ञा का उल्लंघन करके उन्मार्ग - उत्सूत्र का जो अंश मात्र भी उपदेश देना है वह जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का भंग करना है और मार्ग का उल्लंघन करके प्रवर्तना है तथा जिन आज्ञा भंग करने में इतना अधिक पाप है कि उसे फिर जिनभाषित धर्म को पाना अत्यन्त दुर्लभ हो जाता है ।।
भावार्थ:- कषाय के वशीभूत होकर यदि कोई जिनवर की आज्ञा के अतिरिक्त एक अक्षर भी कहे तो उसमें इतना अधिक पाप होता है कि जिससे वह जीव निगोद चला जाता है । निगोद में जाने के
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भव्य जीव