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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भावार्थ:- कोई सवक्ता यथार्थ उपदेश देता है और कारण के वश से वह क्रोध करके भी कहे तो उसका क्रोध भी क्षमा ही है क्योंकि उसका प्रयोजन जीवों को धर्म में लगाने का है और जो पुरुष अपनी पूजा व आजीविका आदि के लिए यथार्थ उपदेश नहीं देता वह अपना तथा दूसरों का अकल्याण करने वाला होने से उसकी क्षमा भी आशय के वश से दोष रूप ही है ।। १४ ।।
जिनधर्म को कष्ट सहकर भी जान
इक्को वि ण संदेहो, जं जिणधम्मेण अत्थि मोक्खसुहं । तं पुण दुव्विण्णेयं, अइ उक्किट्ट पुण्णरसियाणं । । १५ । ।
अर्थः-'जिनधर्म के सेवन से मोक्षसुख प्राप्त होता है - इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं है इसलिए जो पुरुष धर्म के अति उत्कृष्ट रस के रसिक हैं उन्हें यह जिनधर्म कष्ट करके भी जानना योग्य है ।।
भावार्थ:- जीव का हितकारी एक जिनधर्म ही है इसलिये अत्यन्त कष्ट करके भी इस जिनधर्म का स्वरूप जानना योग्य है । इसके सिवाय अन्य लौकिक वार्ताओं को सीखने में किसी भी प्रकार से आत्महित नहीं है, वे तो कर्म के अनुसार सभी के बन ही रही हैं ।। १५ ।।
जिनमत का ज्ञान दुर्लभ है
सव्वं पि वियाणिज्जइ, लब्भइ तह चउरिमाय जणमज्झे । एक्कं पि भाय ! दुलहं, जिणमयं विहि रयण सुविआणं ।। १६ ।।
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भव्य जीव