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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भावार्थ:- लोक रीति ऐसी है कि राजा भी कुलक्रम के अनुसार न्याय नहीं करता । जैसे कोई बड़े कुल का मनुष्य हो और वह चोरी आदि अन्याय करे तो राजा उसे दण्ड ही देता है तब फिर विचार करो कि ऐसे अलौकिक उत्कृष्ट जैनधर्म में कुलक्रम के अनुसार न्याय कैसे होगा अर्थात् कभी नहीं होगा । यदि कोई बड़े आचार्यों के कुल का नाम करके पाप कार्य करेगा तो वह पापी ही है, गुरु नहीं - ऐसा जानना । ऐसे को गुरु मानना सर्वथा मिथ्यात्व का ही प्रभाव है ।। ७ ।।
कुगुरु के निकट वैराग्य की असंभवता
जिणवयण वियत्तूण वि, जीवाणं जं ण होइ भव-विरई । ता कह अवियत्तूण वि, मिच्छत्त हयाण पासम्मि ।। ८ ।।
अर्थः- जब जिनवचनों को जानकर भी जीवों को संसार से उदासीनता नहीं होती तब फिर जिनवचनों से रहित मिथ्यात्व से मारे जो कुगुरु हैं उनके निकट संसार से उदासीनता कैसे होगी अर्थात् नहीं होगी ।।
भावार्थः- कितने ही अज्ञानी जीव संसार से छूटने के लिये कुगुरुओं का सेवन करते हैं उनको कहते हैं कि 'वीतराग भाव के पोषक जो जिनवचन हैं उन्हें जानकर भी कर्म के उदयवश संसार से उदासीनता नहीं उत्पन्न होती है तो फिर रागद्वेष एवं मिथ्यात्वादि को पुष्ट करने वाले जो परिग्रहधारी कुगुरु हैं उनके निकट रहने से वैराग्य कैसे उत्पन्न
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भव्य जीव)