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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
के श्रद्धान से मोक्ष की प्राप्ति होती है जिसमें यह जीव सदैव अविनाशी सुख भोगता है इसलिये जिनेन्द्र भगवान ही मरण का भय निवारण करते हैं- ऐसा जानना । । ४ । । मिथ्यात्व की महिमा
जह कुवि वेस्सारत्तो, मुसिज्जमाणो वि मण्णए हरसं । तह मिच्छवेस मुसिया, गयं पि ण मुणंति धम्मणिहिं । । ५ । ।
अर्थः- जैसे कोई वेश्यासक्त पुरुष अपना धन ठगाता हुआ भी हर्ष मानता है वैसे ही मिथ्या वेषधारियों द्वारा ठगाते हुए जीव अपनी धर्म रूपी निधि के नष्ट होते हुए भी इस बात को मानते नहीं हैं, जानते नहीं हैं ।।
भावार्थ:- जिस प्रकार कोई वेश्यासक्त पुरुष तीव्र राग के उदय अपना धन ठगाता हुआ भी हर्ष मानता है उसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि जीव भी मिथ्यावेष के धारकों को धर्म के लिये हर्षित होकर पूजता है, नमस्कार आदि करता है और उससे सम्यग्दर्शन धर्म रूपी निधि की जो हानि होती है उसे वह जानता ही नहीं है - यह सब मिथ्यात्व की महिमा है ।।५।।
आगे कोई कहता है कि 'हमारे तो इन मिथ्या वेषधारियों की सेवा कुलक्रम से चली आ रही है अथवा सारा लोक इनका सेवन करता है सो हम कुलधर्म को कैसे छोड़ दें ?' उन्हें आचार्य समझाते हैं:
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भव्य जीव