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ही करना ।।९२|| (४५) वक्ता का निमित्त यदि न मिले तो भी धर्मात्मा पुरुष उसे कष्ट से भी मिलाकर धर्म श्रवण करते हैं और स्वयमेव जिन्हें वक्ता का निमित्त मिला हो तो भी जो धर्म नहीं सुनते वे अपना अकल्याण करने वाले होने से दुष्टचित्त हैं, कहे की लज्जा नहीं इसलिये ढीठ हैं और संसार का भय होता तो धर्म सुनते परन्तु नहीं सुनते हैं अतः जाना जाता है कि संसार के भय से रहित सुभट हैं ।।९३।। (४६) शुद्ध धर्म व कुल में उत्पन्न हुए गुणवान पुरुष निश्चय से संसार में नही रमते, वे जिनराज की दीक्षा ग्रहण कर शुद्धात्मा का ध्यान करके आत्मा का परम हित रूप मोक्ष पाते हैं।।९४ ।। (४७) सब जीवों का हित सुख है और वह सुख धर्म से होता है इसलिए जो धर्म का उपदेश देते हैं वे ही परम हितकारी हैं, अन्य स्त्री-पुत्रादि हितकारी नहीं हैं क्योंकि वे मोहादि के कारण हैं ।।१०१।। (४८) जिनेन्द्रदेव, जिनवचन और महा सज्जनस्वभावी निग्रंथ गुरुजन ही धर्म
की उत्पत्ति के मूल कारण हैं ||१०३।। (४९) जिनधर्म में एकान्त नहीं होता कि अमुक सम्प्रदाय के तो हमारे गुरु हैं
और बाकी औरों के गुरु हैं। जिनमत में तो पाँच महाव्रत आदि यथार्थ आचरण के जो धारी हैं वे सब ही गुरु हैं ।।१०५ ।। (५०) निर्मल धर्मबुद्धि सुविशुद्ध पुण्य से युक्त सज्जन पुरुषों की संगति से शीघ्र ही समुल्लसित हो जाती है अतः मैं उनकी बलिहारी जाता हूँ , प्रशंसा करता हूँ ||१०६ ।। (५१) धर्मसेवन से वीतराग भाव की प्राप्ति होती है।।११२|| (५२) जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया शुद्ध जिनधर्म अनेक भाग्यवान जीवों को ही आनन्दित करता है ।।११३।। (५३) धर्म का नाम लेकर पाप का सेवन करना मूर्खता और ज्ञानियों की करुणा का विषय है।।११४ ।। (५४) व्रतादि धर्म को सम्यक्त्व सहित ही धारण करना चाहिये-यह इस गाथा का तात्पर्य है।।११६ ।।। (५५) कोई अधिक धनादि रखकर अपने को बड़ा माने सो ऐसा जिनमत में तो नहीं है, यहाँ तो धनादि के त्याग की ही महिमा है-ऐसा जानना ।।११९ ।।
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