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करते हैं और द्रव्यों का त्याग भी करते हैं परन्तु एक मिथ्यात्व रूपी विष के कण को नहीं त्यागते जिसके कारण संसार में डूब जाते हैं।।४६ ।। (२१) मिथ्यात्वयुक्त अशुद्ध पुरुषों की संगति से प्रवीण पुरुषों का भी धर्मानुराग दिन-दिन प्रति घटता हुआ हीन हो जाता है।।४७।। (२२) जिस क्षेत्र में मिथ्यादृष्टियों का बहुत जोर हो वहाँ धर्मात्मा को रहना योग्य नहीं है।।४८|| (२३) मिथ्या कथन में एकान्त को प्राप्त जो मिथ्यावादी हैं वे पुरुष धर्म में स्थित धर्मात्माओं के प्रभाव का समस्त श्रावक समूह में पराभव करने में उद्यमी होते हैं । ।५१ ।। (२४) मूर्यों को रिझाने के लिए मिथ्यात्व संयुक्त जीवों के विपरीत आचरण की प्रशंसा करना कभी भी योग्य नहीं है। ।५८ ।। (२५) महा मिथ्यादृष्टि को भी सज्जन तो भला ही उपदेश देते हैं फिर उसका भला होना-न होना भवितव्य के आधीन है।।६२ ।। (२६) कई मिथ्यादृष्टि जीव अपने को सम्यग्दृष्टि मानकर अभिमान । करते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं कि 'हे भाई ! पाँच महाव्रत के धारी मुनि भी स्व-पर को जाने बिना द्रव्यलिंगी ही रहते हैं तो फिर गृहस्थों की तो क्या बात अतः तत्त्वों के विचार में सतत उद्यमी रहना योग्य है' ||६४ ।। (२७) रे जीव ! तू अन्य अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के दोषों का क्या निश्चय । करता है, वे तो मिथ्यादृष्टि हैं ही, तू स्वयं को ही क्यों नहीं जानता, यदि तेरे निश्चल सम्यक्त्व नहीं तो तू भी तो दोषवान है ।।७० ।। (२८) जो जीव मिथ्यात्व का आचरण करते हुए भी निर्मल जिनधर्म की वांछा करते हैं वे ज्वर से ग्रस्त होते हुए भी खीर आदि वस्तु खाने की इच्छा करते हैं । ७१|| (२९) जो अन्यथा आचरण करता है वह मिथ्यादृष्टि ही है, कुल से कुछ साध्य नहीं है। जैसे कोई बड़े कुल की भी स्त्री है पर व्यभिचार का सेवन करती है तो व्यभिचारिणी ही है, कुलीन नहीं। ७२ ।। (३०) मिथ्यादृष्टियों का तो संग भी अहितकारी है पर उसे तो जो करते नहीं और उसे छोड़कर उनके धर्म को करते हैं वे पापी जीव चोर का संग छोड़कर आप ही चोरी करते हैं अर्थात् मिथ्यादृष्टियों का कहा हुआ
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