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क्रमांक
विषय
२८ मध्यम गुण-दोष ही संगति से होते हैं
२६. उत्कृष्ट पुण्य-पाप संगति से नहीं होते ३०. धन के दो प्रकार
३१. पंचम काल में गुरु भाट हो गए हैं।
३२. इस काल में जिनधर्म की विरलता क्यों
३३. देव गुरु का यथार्थ स्वरूप पाना कठिन है ३४. जिनाज्ञारत जीव पापियों को सिरशूल हैं
३५. ग्रंथकर्ता के हृदय का आक्रन्दन
३६. कुगुरु के त्यागी को दुष्ट कहना मूर्खता है ३७. कुगुरु सेवन से सर्प का ग्रहण भला है
३८. अहो ! यह लोक भेड़चाल से ठगाया गया
३६. महा मोह की महिमा
४०. कुगुरु स्व- पर अहितकारी है
४१. सारिखे की सारिखे से प्रीति
४२. जिनधर्म विरल देखकर भी निर्मल श्रद्धान का होना.
४३. इस काल के जीवों का पापोदय
४४. मिथ्यादृष्टि के लक्षण
४५. प्रत्येक धर्मकार्य जिनाज्ञा प्रमाण ही कर
४६. मिथ्यात्व संसार में डुबाने का कारण है ४७. संगति से धर्मानुराग की वृद्धि हानि ४८ मिथ्यादृष्टियों के निकट मत बसो
४६. धर्मात्मा कहाँ पराभव पाता है। ५०. अमार्गसेवी धनिक धर्मार्थी को पीड़ादायक
५१. मिथ्यावादी धर्मात्माओं का अनादर करते हैं ५२. धर्मात्माओं के आश्रयदाता जयवंत हैं ५३. धर्माधार देने वाला अमूल्य ५४. सत्पुरुषों के गुणगान से कर्म गलते हैं
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