Book Title: Tulsi Prajna 2008 01 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 9
________________ अहेतुगम्य । सब कुछ हेतुगम्य नहीं है। यह हमारा आग्रह मिथ्या है कि हम सब कुछ तर्क से सिद्ध करें, हेतु से सिद्ध करें। जो हेतुवाद का विषय है, वही हेतु से सिद्ध हो सकता है। अहेतुवादी पदार्थ, अमूर्त पदार्थ और सूक्ष्म पदार्थ तर्क के द्वारा कभी सिद्ध नहीं हो सकते । तर्क की सीमा भी शब्दों की सीमा के साथ जुड़ी हुई है। हम पदार्थ की प्रकृति को देखें तो जो अमूर्त पदार्थ हैं, वे हमारे ज्ञान के विषय नहीं हैं। हम केवल विशिष्ट ज्ञानी, अतिशय ज्ञानी की वाणी के आधार पर उनको स्वीकार कर लेते हैं अथवा मानकर चलते हैं। वहाँ पहुँचने के लिए स्वयं को ही साधना करनी होगी। अपनी साधना सिद्ध होगी तभी कोई आदमी पहुँच पायेगा और उनका साक्षात्कार कर पायेगा। अस्तिकाय अस्तित्व का ही वाचक है। महावीर ने कहा- पांच अस्तित्व हैं, प्रत्येक का स्वतन्त्र अस्तित्व है । जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय - सबका स्वतन्त्र अस्तित्व है । जो अस्तित्व है, वह सत् है। सत् में यह सारा होता है । उमास्वाति ने बहुत सुन्दर कहा - उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । यह सत् का लक्षण है जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है, वह सत् है । प्रत्येक द्रव्य का एक अंश ऐसा है, जो स्थायी रहता है, कभी नहीं बदलता। एक अंश ऐसा है, जो परिवर्तित होता रहता है, बदलता रहता है। बहुत ठीक कहा गया है- अथिरे पलोट्टई, थिरे नो पलोट्टई - जो अस्थिर अंश है, वह परिवर्तित होता रहता है। जो स्थिर अंश है, वह कभी नहीं बदलता । अस्तित्व भी द्वयात्मक हो गया। एक उसका अपरिवर्तनीय अंश और एक उसका परिवर्तनीय अंश । परिवर्तन और अपरिवर्तन दोनों के आधार पर फलित हुआ है - नित्यानित्यवाद । हम परिवर्तन को देखते हैं, क्योंकि हमारा ज्ञान इतना नहीं है कि हम अपरिवर्तन को देख सकें। अतीन्द्रिय ज्ञान के बिना वह संभव ही नहीं है। इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा हम उतना ही जान सकते हैं जिनका प्रारम्भ इन्द्रियों से हुआ है, संवेदनों से हुआ है और मन के द्वारा जिनका विश्लेषण हुआ है, बुद्धि के द्वारा जिनका व्यवसाय या निर्णय हुआ है। इस सीमा से आगे जायें तो औत्पत्तिकी बुद्धि के द्वारा कुछ नये रहस्यों को भी हमने खोजा है। यह हमारी ज्ञान की सीमा है। उत्पाद और व्यय के बारे में विचार करते हैं तो विश्व के स्वरूप को समझने या दृष्टि की व्याख्या करने में बहुत सुविधा हो जाती है । एक प्रश्न हुआ - अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ नत्थित्तं नत्थित्ते नत्थित्ते परिणमइ - क्या अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है, क्या नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है ? दूसरा प्रश्न आया - अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं नत्थित्तं नत्थित्ते गमणिज्जं - क्या अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय है, क्या नास्तित्व नास्तित्व में गमनीय है ? दो प्रश्न हैं। अस्तित्व का अस्तित्व में परिणमन- उत्पाद उत्पाद पैदा करता है। नास्तित्व का नास्तित्व में परिणमन - विगमन विगमन पैदा करता है। एक शृंखला चलती है, एक संतति की परम्परा है। तुलसी प्रज्ञा अंक 138 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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