Book Title: Tulsi Prajna 2008 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ नियम होना जरूरी है। नियम के बिना कुछ भी नहीं चलता। नियम भी किसी ने बनाया नहीं। सार्वभौम नियम हैं, कोई नियम को बनाने वाला नहीं है। कर्ता भी नहीं, नियंता भी नहीं। ___एक प्रश्न उभरा - कर्म का फल कौन करेगा? कौन फल देगा? अपराध करने वाला स्वयं तो दंड नहीं लेता, कोई-न-कोई दंड देता है। तर्क तो बहुत स्थूल है पर चलता है। कर्म फल देने वाला अगर ईश्वर नहीं है तो कर्म की विफलता हो जायेगी। यह प्रश्न कुछ चिन्तन मांगता है कि कर्म और ईश्वर - दोनों में से एक की सत्ता स्वीकार करना ज्यादा अच्छा है। यदि कर्म कुछ करता है तो ईश्वर की जरूरत नहीं है। ईश्वर करता है तो कर्म को स्वतन्त्र मूल्य देने की जरूरत नहीं है। वह तो उसके करने की एक प्रक्रिया मात्र होगा। फिर अच्छे-बुरे, पुण्य-पाप की सारी चर्चाएं समाप्त हो जाएंगी। बहुत से प्रश्न सामने हैं। उस पर चिन्तन के बाद भी ऐसा लगता है कि विश्व भी अपने नियमों से संचालित, कर्म भी अपने नियम से संचालित और फल भोग की प्रक्रिया भी अपने नियम से संचालित है। अनादि अस्तित्व है और अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ है ह्रपरिणमन । परिणमन होता रहता है, बदलता रहता है और अपने नियमों से ही बदलता रहता है। शायद यह अधिक बुद्धिसंगत बात हो सकती है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की त्रिपदी ने सृष्टि के विषय में और विश्व की व्याख्या के विषय में काफी सुविधा दी है। विश्व और सृष्टि - ये दो शब्द हैं। अर्थ दोनों के भिन्न हैं। विश्व अस्तित्व का एक समवाय है, जिसमें पाँच अस्तिकाय होते हैं, द्रव्य होते हैं, वह लोक है। इतना तो विश्व के साथ जुड़ा हुआ है। जो हो रहा है, वह सृष्टि का मार्ग है। सृष्टि में बदलाव आता है, वह बदलती रहती है, सारे परिवर्तन होते रहते हैं। आचार्य तुलसी ने जैन सिद्धान्त दीपिका में बहुत सुन्दर सूत्र लिखा है- जीवपुद्गलयोर्विविध संयोगैः सः विविधरूप:- जीव और पुद्गलों के संयोग से सृष्टि का निर्माण होता है। विविध परिवर्तन होते हैं, विविध रूप बनते हैं। दोनों का संयोग सृष्टि का निर्माण करता है। विश्व में पांच अस्तिकायों का अस्तित्व है, सबका योग है। सृष्टि में केवल जीव और पुद्गल - दोनों का योग है। औरों की कोई अपेक्षा नहीं है। जो भी नव-निर्माण होता है, सारा जीव और पुद्गल के संयोग-वियोग से होता है। जीव और पुद्गल का संयोग बना और अनेक रूप बन जाते हैं। दोनों के संयोग से भी होता है और कुछकुछ स्वतन्त्रता से भी होता है। पुद्गल के भी अनेक रूप स्वत: बनते रहते हैं, स्कन्ध बनते रहते हैं। द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक अपना निर्माण करते रहते हैं। जब जीव के साथ इनका संयोग होता है तब नये निर्माण करते हैं। रोबोट है, केवल पुद्गल का निर्माण है। कम्प्यूटर है, उसमें चेतना नहीं है। केवल पौद्गलिक सृष्टि है। मनुष्य है, केवल पौद्गलिक सृष्टि नहीं है, वह जीव और पुद्गल दोनों के संयोग से होने वाली सृष्टि है। एक दृष्टि से देखें तो मनुष्य तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008 - - 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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