Book Title: Tulsi Prajna 2008 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 41
________________ कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया व लोभो व पवड्डमाणा। चत्तारि ए ए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स।। भावनात्मक चिकित्सा में अन्तःकरण की भावना ही चिकित्सा का कार्य करती है। व्यक्ति की धृति व संहनन बाह्य शोधि में निमित्त बनते हैं।36 काम चिकित्सा के संदर्भ में सूत्रकार ने कहा है-वेदोदीर्ण व्यक्ति की विधिपूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए। सर्वप्रथम आहार संयम, रस परित्याग का अभ्यास करना चाहिए। यदि उससे भी काम पर नियंत्रण न हो तो क्रमशः अवमौदर्य, उपवास तप, ऊर्ध्वस्थान करना चाहिए। ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए।” भाष्य में 1600-1610 तक की गाथाओं में इसकी चिकित्सा विधि बतलाई है। क्रोध आदि कषाय चतुष्क दुष्टभाव है। कषाय, मान और माया आदि इसके सहचारी हैं। क्रोध करने से आत्मा का पतन होता है। इनका नाश करने से आत्मा का समुत्थान होता है, जैसे शीतगृह-जलयंत्रगृह दाह का अपनयन करता है, वंजुल वृक्ष सर्प विष को दूर करता है, वैसे ही शुद्ध चिन्तन से व्यक्ति के क्रोधादि भावों का अपनयन करना चाहिए।39 माया भी विकृत भाव है। माया का तात्पर्य है-असंयम में रुचि रखना। दूसरों का छिद्रान्वेषण करना। माया से अशुचि-अपवित्रता होती है। वह द्रव्य और भाव से दो प्रकार की होती है। द्रव्यतः अशुचि है-खाद्य सामग्री के प्रति आसक्ति। भावतः अशुचि है-प्राणातिपात आदि हिंसक प्रवृत्तियों में आसक्त होना।1० भाष्य में यहां तक कहा है कि मायावी को आचार्य आदि पद के योग्य नहीं माना जाता है। इसी प्रकार लोभ की विकृति भी जन्म मरण में निमित्त बनती है। मोह कर्म की जितनी सघनता होती है, चिकित्सा भी उतनी ही सघन हो जाती है। राग-द्वेष की अल्पता से भाव अशुद्ध कम होते हैं। चिकित्सा भी शीघ्र हो जाती है।42 भाव-चिकित्सा के लिए चिकित्सक भी कुशल होना चाहिए। अकुशल चिकित्सक भावों की चिकित्सा न करके रोगी को रोगग्रस्त कर देता है। आंतरिक शल्य का जिसके समक्ष शोधन किया जाता है, वह यदि उसे कहे-तुम धन्य हो! तुमने शल्योद्धार का साहस किया है। गुप्त अपराधों को प्रकट करने का उत्कट साहस किया है। सचमुच! तुम साधुवाद के पात्र हो। तुम्हारा ऋजुभाव मेरे लिए भी प्रेरणा है। ऐसे कुशल चिकित्सक के पास व्यक्ति ऋजुता से भाव चिकित्सा कर सकता है। इसके विपरीत चिकित्सक के पास व्यक्ति सम्यक् शुद्धि नहीं कर सकता। कभी-कभी असह्य ताड़ना से कुपित होकर रोगी चिकित्सक का घात भी कर सकता है।43 40 - तुलसी प्रज्ञा अंक 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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