Book Title: Tulsi Prajna 2008 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 51
________________ Ana निशीथ-चूर्णि में बताया गया है कि जिस गाड़ी में काष्ठ मजबूत हो तथा जिसमें वकील और लोहपट्ट का प्रयोग हुआ हो, वह भार वहन में समर्थ मानी जाती थी। कुछ लोग व्यापार के लिए समर्थ सार्थपति के नेतृत्व में बड़े सार्थ के साथ यात्रा करते। सार्थपति अपने समूचे सार्थ के लिए पूरी यात्रा में पर्याप्त हो सके, इतनी खाद्य सामग्री-आटा, चावल, तेल, घी, आदि जलपात्र, औषध, ईंधन, आवरण, प्रहरण आदि सभी वस्तुएँ अपने साथ लेकर चलते थे। 2 अन्य अपेक्षा से सार्थ के कालोत्थायी, स्थानस्थायी, कालनिवेशी, कालभोजी आदि प्रकार भी आए हैं। ये लोग अपने साथ अनुरंगा (गाड़ी), पालकी, भैंसे, हाथी, बैल आदि भी रखते थे, जिससे अपेक्षा होने पर रोगी या असमर्थ को उन पर चढ़ा सके। कई बार कावड़ से भी वृद्ध आदि को रास्ता पार करवाना पड़ता। जो लोग अकेले यात्रा करते उन्हें मार्ग में वर्षा, जंगली जानवर, चोर, लूटेरे आदि अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता था। जल पट्टणों एवं द्रोणमुखों में जलयानों के द्वारा भी व्यापार होता था। नदियों के मार्ग से जाने वाले व्यापारी प्रायः अगट्ठिया (नेपाल में चलने वाली एकठा नाव), अंतरडकगोलिया (डोंगी) और कोंचवीरग (जलयान) का प्रयोग करते। निशीथसूत्र के अठारहवें उद्देशक में चार प्रकार की नावों का उल्लेख उपलब्ध होता है-ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी, योजनवेला गामिनी और अर्धयोजनवेला गामिनी। निशीथ भाष्यकार पूज्य संघदास गणि ने अन्य चार प्रकार की नावों का उल्लेख किया है-अनुलोमगामिनी, प्रतिलोमगामिनी, तिर्यक् संतारणी तथा समुद्रगामिनी। मूल्य और मुद्रा प्राचीनकाल में वस्तु विनिमय होता था। भाष्य युग तक आते-आते मुद्रा विनिमय भी होने लगा। निशीथ भाष्य में वैद्य को दी जाने वाली फीस के परिप्रेक्ष्य में मुद्रा की चर्चा आई है। इसी प्रकार वस्त्र एवं पात्र के विषय में भी मूल्य एवं मुद्रा की चर्चा आई है। सामयिक परिभाषा में बहुमूल्य वस्त्र एवं बहुमूल्य पात्र को भावकृत्न कहा गया है। दुविधं च भावकसिणं, वण्णजुअं चेव होति मोल्लजुआ वण्णजुअं पंचविधं, तिविधं पुण होति मोल्लजु।' अठारह रुपये मूल्य वाला वस्त्र जघन्य भावकृत्स्न तथा लाख रुपये मूल्य वाला वस्त्र उत्कृष्ट भावकृत्स्न कहलाता था। इसी प्रकार पात्र का जघन्य मूल्य एक कार्षापण तथा उत्कृष्ट मूल्य लाख कार्षापण बताया गया है। भिन्न-भिन्न देशों में मुद्राओं के भिन्न-भिन्न प्रकार होते थे। सौराष्ट्र के दक्षिणवर्ती द्वीप में प्रचलित रुपये को ‘साभरक' कहा जाता। उत्तरापथ का एक रुपया दो साभरक तथा पाटलिपुत्र का एक रुपया चार साभरक के बराबर मूल्य वाला होता था। 50 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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