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मालाओं का प्रयोग करते थे। फूल, फल, बीज, पत्र, हरित्त आदि के अलावा मूंज, बेंत," मदनपुष्प, भेंड, मोरपंख, सींग, हाथीदांत, कौड़ी, रुद्राक्ष आदि अनेक वस्तुएँ से मालाएँ बनाई जाती थी।2 बन्दरों की हड्डियों की भी मालाएँ बनाई जाती थीं।33 काष्ठकर्म आदि
बढ़ई लोग काष्ठ की विभिन्न जातियों एवं उनकी विशेषताओं से परिचित होते थे। वे काष्ठ के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार की मालाएँ, मूर्तियाँ, पात्र, पीढ़े, पलंग, खाट आदि बनाते थे। मकान एवं मकान के कई अवयव भी लकड़ी से बनाए जाते। डोय, दर्वी, आयमणी (लुटिया), उल्लंकअ आदि उस समय के प्रसिद्ध काष्ठपात्र थे।34. अन्य पेशेवर एवं श्रमजीवी
कृषक, कुम्भकार, जुलाहे, चर्मकार आदि के अतिरिक्त अन्य भी कई पेशे समाज में प्रचलित थे। जैसे-नट, नर्तक, जल्ल (रस्सी पर खेल दिखाने वाले), मल्ल, मौष्टिक, विदूषक, लंख, मंख आदि। इसी प्रकार राजभृत्यों में छत्रग्राही, सिंहासनग्राही, पादुकाग्राही, यष्टिग्राही
आदि अनेक पेशेवर लोगों का उल्लेख मिलता है। प्राचीन जैन वाङ्मय में अनेक प्रसंगों में विभिन्न पेशेवर लोगों का उल्लेख हुआ है, जैसे नाई, धोबी, व्याध, खटीक, हरिकेश, वरुड़ आदि। विनिमय
निशीथसूत्र में चंपा, मथुरा, वाराणसी, श्रावस्ती, राजगृह आदि आठ राजधानियों का उल्लेख मिलता है। तत्कालीन साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भारतवर्ष में ये उस समय के विशिष्ट उद्योगकेन्द्र एवं समृद्ध व्यापार केन्द्र थे। कुछ स्थानों पर जलमार्ग से व्यापार होता तो कुछ स्थानों पर स्थलमार्ग का प्रयोग कर व्यापारी अपने देश से विभिन्न वस्तुएँ बेचने आते। भृगुकच्छ (भडौंच), ताम्रलिप्त आदि स्थानों में जल और स्थल दोनों मार्गों से व्यापार होता, वे द्रोणमुख कहलाते।
वणिक् समाज मूलधन की रक्षा करते हुए धनोपार्जन हेतु किसी अच्छे स्थान में जाते। वहां अपनी दुकान लगाकर अपने भाग्य को व्यापार कौशल की कसौटी पर कसते। कुछ लोग बिना दुकान के घूम फिर कर व्यापार करते। प्राचीन काल में इनके लिए वणि और विपणि शब्द प्रचलित थे।40 व्यापारियों का एक वर्ग था कक्खपुडिय- वे अपनी गठरी बगल में दबाकर विनिमय के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते।4। निशीथचूर्णि में बताया गया है कि चक्रिकाशाला में तेल, गोलियशाला में गुड़, गोणियशाला में गायें, दोसियशाला में वस्त्र तथा गन्धियशाला में सुगंधित पदार्थों का विक्रय होता था। पोइयशाला अर्थात् हलवाई की दुकानों
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तुलसी प्रज्ञा अंक 138
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