Book Title: Tulsi Prajna 2008 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 47
________________ निशीथसूत्र में पांचवे उद्देशक में अनेकखानों-लोहा, तांबा, रांगा, शीशा, चांदी, सोना और" वज्ररत्न की खानों का उल्लेख मिलता है। लोग अपनी-अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार लोहे, तांबे, रांगे, सोने, चांदी आदि के पात्र रखते, कुछ लोग मुक्ता आदि से जड़ित स्वर्णपत्र और मणिमय पात्र भी रखते थे। प्राचीन काल में लोग धातु के पानी से सींचकर तांबे से सोना बनाने की विद्या भी जानते थे। सुनार लोग सोने, चांदी, रत्न आदि से विविध प्रकार के आभूषण बनाते। निशीथसूत्र में हार, अर्धहार, एकावलि, मुक्तावलि, कनकावलि, रत्नावलि, कटिसूत्र, भुजबन्द, केयूर कुंडल, मुकुट आदि चौदह प्रकार के आभूषणों का उल्लेख मिलता है।1 स्वर्णकार के समान लोहकार का व्यापार भी उन्नति पर था। उस समय बड़ी-बड़ी कर्मकारशालाएँ होती थीं। जहां वे कवल्ली, कन्दुक (तवा), कइविय (चम्मच) जैसे घरेलू उपकरणों का निर्माण करते क्षुर, पिप्पलक (कैंची), सूई, नखच्छेदनक (नेलकटर), कर्णशोधनक, आरा आदि छोटे-छोटे शस्त्रों का निर्माण भी करते। निशीथचूर्णि में पूरे शस्त्रकोश का वर्णन मिलता है, जिसमें अंगुलिशस्त्र, शिरोवेधशस्त्र, कल्पनशस्त्र, संडासक आदि नौ या इससे अधिक शस्त्र रखे जाते। विविध धातुओं के समान प्राचीन काल में हाथीदांत, शंख, शैल, वस्त्र एवं चर्म के पात्र भी बनाए जाते थे।24 पात्र विषयक वर्णन का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में पात्र उद्योग एक विविध आयामी उद्योग था जिसमें एक कर्षापण से लेकर लाख कार्षापण मूल्य पर्यन्त विविध प्रकार के पात्र बनाए जाते थे। कुम्भ-उद्योग प्राचीन साहित्य में बड़ी-बड़ी कुम्भकारशालाओं का उल्लेख मिलता है। वहाँ मिट्टी के बर्तन, मूर्तियां आदि बनाए जाते। उन बर्तनों को पकाने के पचनशाला, पके हुए बर्तनों को रखने के लिए भांडशाला, बर्तन बनाने के लिए कर्मशाला, ईंधन रखने के लिए ईंधनशाला तथा विक्रेय बर्तनों को रखने के लिए पण्यशाला होती थी। वस्त्र उद्योग कृषि के समान वस्त्र उद्योग भी उस समय का महत्त्वपूर्ण उद्योग था। वस्त्र निर्माताओं की बड़ी-बड़ी तन्तुवायशालाएँ होती थीं। प्राचीन साहित्य में सामान्यतः वस्त्रों के पांच प्रकारोंजांगिक, भांगिक आदि का उल्लेख मिलता है, निशीथभाष्य में भिन्न प्रकार से वस्त्रों के तीन भेद किये गए हो 1. एकेन्द्रिय निष्पन्न-कपास आदि से बने हुए वस्त्र। 2. विकलेन्द्रिय निष्पन्न-कौशेय आदि। 3. पंचेन्द्रिय निष्पन्न-और्णिक वस्त्र, कम्बल आदि।26 46 । - तुलसी प्रज्ञा अंक 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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