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लगा दी जाती। लोग मूली, धनिया, बथुआ, जीरा, दवना, मरुआ आदि के पत्तों तथा बड़, पीपल, पाकड़ आदि के फलों को सुखाकर भी प्रयोग करने थे। उनको सुखाने का स्थान वर्च कहलाता था। निशीथ सूत्र में आम और इक्षु को खाने के अनेक प्रकारों का वर्णन' भी उनकी पर्याप्त मात्रा में उपज का सूचक है।
भाष्यकाल (ईसा की चौथी पांचवी शताब्दी) में कच्चे फलों को पकाने की भी अनेक विधियां प्रचलित थी-आम आदि को घास-फूस या भूसे के अन्दर रखकर, उसकी गर्मी से पकाया जाता। ककड़ी खीरा, बिजौरा आदि के कच्चे फलों को पक्के फलों के साथ रखकर उनकी गन्ध से पकाया जाता। तिन्दुक आदि फलों को धुएं के द्वारा पकाया जाता।' कोट्ट में भी फल पकाए जाते- ऐसा उल्लेख मिलता है। 10
सूत की फसलों में कपास की खेती मुख्य थी । निशीथ - चूर्णि में ऊर्णा नामक कपास का उल्लेख मिलता है, जिसे लाट देश में गड्डर कहा जाता। " वस्त्रों के पांच प्रकारों - जांगिक, भांगिक, पोत्तय आदि में पोत्तय वस्त्र कपास से बनता था। 12 कपास की विविध अवस्थाओं-सेडुग, रुचतं (रुई), पेलू (पूनी), तथा पिंजिय ( पींजा हुआ) का भी उल्लेख मिलता है। लोग दूसरों को वश में करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के कपास से वशीकरण सूत्र भी बनाते थे। 13
पशु-पालन
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प्राचीन भारत में पशुधन को भी पर्याप्त महत्व प्राप्त था। निशीथसूत्र में विगय आदि से प्रसंग में दूध, दही, घी, मत्स्यण्डिका '' आदि का उल्लेख मिलता है, जिससे स्पष्ट है कि उस समय भारतीय लोग दूध देने वाले पशुओं- गाय, बकरी, भैंस आदि को पालते थे। उनको दुहने के लिए दोहन-वाटक होते। गांवों में बड़े-बड़े घोस (गोकुल) होते थे। भेड़ और ऊँट की ऊन से कम्बल, रजोहरण आदि बनाने का उल्लेख उनके पालन की सूचना देता है । मूर्धाभिषिक्त राजा घोड़े, हाथी, महिष, वृषभ, सिंह, व्याघ्र, बकरी, मृग, श्वान, शूकर, मेंढ़ा, बन्दर, कुक्कुट, कबूतर, बतख, लावक, चिरल्ल, हंस, मोर और तोते को पालते, उनको प्रशिक्षित करते, उन्हें आभूषण आदि पहनाते, सुसज्जित करवाते तथा विविध कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की नियुक्ति करते, जैसे- अश्वपोषक, अश्वदमक, अश्वमिंढ, अश्वारोही आदि। "
खान एवं खनिज उद्योग
जैन आगमों में स्थान-स्थान पर ग्राम, नगर, खेट, कर्बट आदि के साथ आकर शब्द का उल्लेख हुआ है। आकर उस वसति का सूचक है जो पत्थर धातु आदि की खान के समीप हो। 7 अनेक महोत्सवों के साथ आकर महोत्सव का उल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि तत्कालीन भारतवर्ष में खानों एवं खनिजों की भरमार थी।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008
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