Book Title: Tulsi Prajna 2008 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 40
________________ प्रकार किया है-अनुराग से उत्पन्न क्षिप्त चित्त को प्रतिपक्ष भावना का प्रयोग कर दूर किया जाता है। हिंस्र पशु, शस्त्र, अग्नि गीरव का भय दूर करने के लिए रोगी को वैसी स्थिति से प्रत्यक्ष करा कर भय को दूर किया जाता है। यथा- अग्नि का स्तम्भन कर मनोरोगी के सामने दूसरे व्यक्ति द्वारा अग्नि को पैरों से कुचला जाता है। इसी प्रकार वाद से पराजित मुनि या व्यक्ति के समक्ष वादी को बुलाकर उसकी भर्त्सना की जाती है। प्रतिपक्षी को कहा जाता है कि तुम वाद में विजय प्राप्त नहीं कर सके, धिक्कार है तुम्हें, ऐसा व्यवहार कर क्षिप्त चित्त को स्वस्थचित्त किया जाता है। दीप्तचित्तता का मुख्य कारण अहंकार, मद है। दीप्तचित्त व्यक्ति में जो कार्य जितने समय में किया है, उस कार्य को उससे कम समय में कुशलता से संपादित कर उसके गर्व को दूर किया जाता है। यथा- तुमने एक वर्ष में एक करोड़ का धन कमाया, अमुक व्यक्ति एक महिने में एक करोड़ कमाता है। इसे कोई अहंकार नहीं है तो फिर तुम्हें अहंकार क्यों करना चाहिए। उन्मत्त चित्त की चिकित्सा दुष्कर है, क्योंकि इसमें यक्षावेश के कारण अशुभ पुद्गलों का ग्रहण होता है। अतः मंत्र विद्या आदि के प्रयोग से उसकी चिकित्सा करनी चाहिए। फिर भी रोगी स्वस्थ न हो तो अभिहित कायोत्सर्ग के द्वारा देवता की आराधना कर यक्षावेश की चिकित्सा करनी चाहिए। मोहोदय के कारण उत्पन्न हुई उन्मत्तता को आषाढ़भूति की तरह बीभत्स रूप दिखाकर निग्ध, मधुर आहार व करीषमयी शय्या से दूर करनी चाहिए।32 पित्त उद्रेक को दूर करने के लिए शर्करा आदि का प्रयोग करना चाहिए।32 ___ भय, शोक व चिन्ता से व्यक्ति क्षिप्तचित्त होता है। अतिमद से दीप्तचित्त की स्थिति बनती है। मोह के कारण स्वस्थ मन में असामान्य स्थिति का प्रादुर्भाव होता है। तब व्यक्ति का मन, मस्तिष्क, विचार व कार्य सभी कुछ असाधारण होने लगते हैं। यह असाधारण सृजनात्मक न होकर विध्वंसात्मक हो जाती है तब मन अस्वस्थ हो जाता है। उसे स्वस्थ आलम्बन देकर स्वस्थ किया जाता है। इसका सुन्दर चित्रण भाष्यकार ने बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से किया है। भावनात्मक चिकित्सा भावनात्मक रोग का मुख्य कारण है-प्रियता-अप्रियता अथवा राग-द्वेषा भावनात्मकचिकित्सा से चित्त की शोधि होती है। भाष्यकार ने व्यवहार, शोधि, प्रायश्चित्त और आलोचना आदि को एकार्थक माना है। मोह चिकित्सा भाव चिकित्सा है, क्योंकि काम, क्रोध, अहंकार, माया आदि मोह की विविध परिणतियाँ हैं, जिनके कारण भाव विकृत होते हैं। भाष्यकार ने कहा है-जो भावशुद्धि नहीं करता वह शल्य सहित मरण को प्राप्त करता है। वह अत्यन्त गहन और आर-पार रहित संसार रूपी अटवी में चिरकाल तक भ्रमण करता है। 34 दशवैकालिक सूत्र में भी कहा है तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008 - 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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