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अत्यधिक प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। भारतीय दार्शनिक विचारधारा की दृष्टि से विचार करें तो इस समस्त संसार की प्रमुख विशेषता ही है- इसकी संसरणक्रिया। 'संसार' व 'जगत्' शब्दों की नियुक्ति भी इसी तथ्य को पुष्ट करती है। निरन्तर जिसमें संसरणशीलता, क्रियाशीलता, गतिशीलता है वह संसार' है या 'जगत्' है।12 ___ संसार के घटक तत्त्व हैं-- अजीव (जड़, भौतिक) और जीव (चेतन) पदार्थ। इन दोनों में भी 'जीव' प्रमुख है, क्योंकि वह भोक्ता है और शेष पदार्थ (जड़) भोग्य। अजीव (जड़) पदार्थों में से ही कुछ से जीव के शरीर, इन्द्रिय आदि का निर्माण होता है और उसी के सहारे जीव की गतिशीलता- सक्रियता नये-नये आयाम लेती है। इसी दृष्टि से जीव को रथी और शरीर को रथ की या जीव को नाविक की और शरीर को नाव की उपमा दी गई है। संसारी जीव अपने सम्पर्क में आए अजीव पदार्थों के प्रति या अन्य जीवों के प्रति अपने अच्छे-बुरे भावों से अच्छी या बुरी क्रिया करता है। इस क्रिया के पीछे उसका अज्ञान व मोह प्रमुख कारण होता है। यद्यपि सांसारिक पदार्थ स्वप्नवत् अनित्य-विनाशी होते हैं तथापि इन पदार्थों को स्थायी व सुखदायी समझ कर किये गये मानसिक सद्भाव या असद्भाव जीव को क्रियाशील करते हैं और जीव के संसारभ्रमण के कारण होते हैं।15
उस क्रिया की प्रतिक्रियास्वरूप एक सूक्ष्म कर्मचक्र निर्मित होता है और यहीं से शुभाशुभ कर्म-बन्धन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इस शुभाशुभ कर्म चक्र के आधार पर जीव के भावी सुख- दुःखात्मक जीवन की दिशा निर्धारित होती है। फलस्वरूप उपार्जित कर्मों के अनुरूप मरण के बाद भी सद्गति या दुर्गति प्राप्त होती है, अपने क्रियागुणों आदि के अनुरूप जीव स्थूल-सूक्ष्म रूप धारण करने को बाध्य होता है। जन्मान्तर वाले जीवन में भी पूर्ववत् क्रियाशीलता के कारण शुभाशुभ कर्मों का उपार्जन भी चलता रहता है, अतः जन्मजन्मान्तरण, जन्म-मरण-पुनर्जन्म आदि की प्रक्रिया निरन्तर प्रवर्तमान रहती है। जैसे किसी चक्र का आदि व अन्त नहीं होता, वैसे ही कर्म-चक्र व संसार चक्र आदि की प्रक्रिया निरन्तर प्रवर्तमान रहती है। यह प्रक्रिया तभी बन्द हो सकती है जब जीव पूर्णत: निष्क्रिय' (कायिक स्पन्दन आदि से रहित) हो और यह निष्क्रियता तब प्राप्त हो जब सारे कर्म नष्ट हों। (इसी समस्या का समाधान अध्यात्म दर्शन में मिलता है जो जीव को 'निष्क्रियता' की स्थिति तक पहुंचने का मार्ग बताता है। दुःख व अशांति के जीवन का कारण- 'क्रिया'
निष्कर्ष यह है कि जीव-अजीव की क्रीडास्थली ‘संसार' निरन्तर भागदौड, गतिशीलता, सक्रियता के कारण निरन्तर अशान्त दृष्टिगोचर होता है। किसी संसारी जीव को वास्तविक
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तुलसी प्रज्ञा अंक 138
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