Book Title: Tulsi Prajna 2008 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 23
________________ 'अर्थक्रिया' को एक व्यापक अर्थ में लेते हुए जैन दार्शनिकों ने यह भी कहा है कि ज्ञान वजड़ -दोनों की क्रिया 'अर्थक्रिया' में अन्तर्भूत है। संक्षेप में चेतन व अचेतन -दोनों की क्रिया को 'अर्थक्रिया' कहा जा सकता है। अर्थक्रिया में एक वस्तु द्वारा ‘स्वयं में किये जाने वाली विविध क्रियाएं' तो अन्तर्भूत हैं ही, किसी अन्य में भी प्रादुर्भत की जाने वाली क्रियाएं भी उस द्रव्य की मानी जाती हैं। जैसे एक नर्तकी भू-भंग, अक्षिनिक्षेप आदि जो क्रियाएं करती है, वे उसकी 'अर्थक्रिया' हैं, साथ ही नर्तकी के नृत्य को देखकर प्रेक्षकों का भावविभोर हो जाना या उनका विविध मनोभावों से युक्त होना, वह भी नर्तकी की अर्थक्रिया कही जाएगी।47 इस दृष्टि से वस्तु का ज्ञान, उसका अनुभूति-विषय बनना, प्रयोजनानुसार विविध परिणतियों से युक्त होना आदि सभी स्थितियां अर्थक्रिया में अन्तर्भूत हैं। __आचार्य विद्यानन्द ने श्लोकवार्तिक में ग्राह्य-ग्राहक भाव से युक्त होना, वाच्य-वाचकता या कार्यकारणरूपता प्राप्त करना आदि को भी 'अर्थक्रिया' के रूप में स्वीकारा है।48 अर्थक्रियाकारित्व समस्त द्रव्यों में जैन आचार्यों ने अर्थक्रिया या अर्थक्रियाकारिता को व्यापक आयाम देते हुए इसे सर्वद्रव्यगत सिद्ध किया है। न केवल जीव व पुद्गल अपितु धर्म, अधर्म, आकाश, काल में भी अर्थक्रिया होती ही है और यदि न हो तो वह वस्तु 'सत्' या अस्तित्वयुक्त ही नहीं हो सकती, -ऐसा जैन दार्शनिकों का मत है। अर्थक्रिया को सूक्ष्मतया व्याख्यायित करने वाले जैन दार्शनिकों व नैयायिकों की दृष्टि को स्पष्ट करें तो “अपने मौलिक अस्तित्व, सार्थकता व उपयोगिता को निरन्तर बनाये रखते हुए, देश-कालानुरूप सदृश या विसदृश, सूक्ष्म या स्थूल परिणतियोंरूपान्तरणों के माध्यम से क्रियान्वित होना पदार्थ की अर्थक्रिया' है और उस क्रिया से सम्पन्न होते रहने की सहज योग्यता ही 'अर्थक्रियाकारिता' है।" सत्ता व अर्थक्रिया का तादात्म्य प्रत्येक वस्तु में तदात्मभूत 'वस्तुत्व' गुण होता है। जिसके कारण उस वस्तु या द्रव्य में अर्थक्रियाकारित्व संगत होता है, उस वस्तु की प्रयोजनभूत क्रिया संभव होती है। परमार्थतः द्रव्य की सत्ता और अर्थक्रिया- ये दोनों परस्पर अनुस्यूत हैं। इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया हैप्रत्येक सद्भूत वस्तु में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक (त्रिलक्षणात्मक) परिणाम' प्रवर्तमान रहता है और सत्पदार्थगत यही परिणति-प्रवाह अर्थक्रिया है या अर्थक्रिया का आधार है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु में पूर्व आकार का त्याग तथा उत्तरवर्ती आकार का ग्रहण -इस प्रकार परिणाम जो निरन्तर प्रवर्तमान रहता है, वही अर्थक्रियाकारिता' है या उन परिणामों पर ही अर्थक्रिया की उपपत्ति सम्भव हो पाती है। 22 - .. तलपीता, तुलसी प्रज्ञा अंक 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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