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उत्पन्न करे तो कार्यों में भेद नहीं हो सकेगा, क्योंकि कारण-भेद से ही कार्य-भेद सम्भव होता है। अक्रम से, युगपत् (एक साथ) अर्थक्रिया होना माना जाये तो दूसरे क्षणों में वह वस्तु अकिञ्चित्कर (अर्थक्रियाहीन) हो जाएगी।
इस तरह एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य, दोनों ही वस्तुओं में अर्थक्रिया की संगति न होने से उस वस्तु का वस्तुत्व ही खण्डित हो जाएगा।
बौद्धों ने जो क्षणिक परमाणुओं की स्थिति मानी है, उसका खण्डन जैन ग्रन्थों में विशेषतः अर्थक्रिया-असंगति के आधार पर किया गया है। क्षणिक परमाणुओं में परस्पर-सम्बद्धता न मानी जाये तो किसी 'ध्रुव' तत्त्व के न होने से घटादि द्वारा जल-आहरण या धागों से वस्त्रनिर्माण आदि की अर्थक्रियाएं नहीं हो पाएंगी।60 अर्थक्रिया और वर्तना आदि
जैन दार्शनिकों ने क्रिया, परिणाम (भाव) व वर्तना-इसमें कुछ अन्तर व साम्य माना है। अर्थक्रिया के प्रसंग में इनका स्पष्टीकरण भी अपेक्षित है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता प्रत्येक द्रव्य का अविनाभूत स्वभाव है।61 वर्तना व क्रिया भी उस ‘परिणाम' में ही अन्तर्भूत हैं। किन्तु किसी स्वरूप-विशेष को प्रमुखता देने या अधिक स्पष्टता देने की दृष्टि से ‘परिणाम', 'वर्तना' व 'क्रिया' - इन्हें पृथक्-पृथक् रूप में अभिहित किया जाता है।
अपनी मूल सत्ता को नहीं छोड़ते हुए पूर्व पर्याय की निवृत्तिपूर्वक नवीन पर्याय का प्रादुर्भाव रूप जो विकार है, वह चाहे स्वाभाविक हो या प्रायोगिक (परनिमित्तक), उसे 'परिणाम' कहा गया है।
प्रत्येक द्रव्य जिस स्वभावरूप से अपनी सत्ता-प्रवाह को बनाये रखता है या द्रव्य की अपनी मर्यादा के भीतर उसमें प्रतिसमय जो पर्याय होता है, उसे भाव, तत्त्व या परिणाम कहा जाता है।63 जीव में क्रोध आदि और पुद्गल में वर्णादि विकार उसके परिणाम हैं। धर्म आदि द्रव्यों में भी अगुरुलघुगुण' की वृद्धि-हानि से प्रतिक्षण परिणमन होता है।64
अब ‘वर्तना' के स्वरूप पर विचार करें। हर एक द्रव्य-पर्याय में जो हर समय स्वसत्ताअनुभवन होता है, उसे 'वर्तना' कहा जाता है अर्थात् एक अविभागी समय में जो छहों द्रव्य स्वतः ही अपनी सादि और अनादि पर्यायों से- जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप हैं-वर्तन कर रहे हैं, अस्तित्व बनाये रहते हैं, उस वर्तन को ही 'वर्तना' कहा जाता है।65
वर्तना व परिणाम में सूक्ष्म अन्तर भी किया जा सकता है। जहां द्रव्य-पर्यायें ‘परिणाम' हैं, वहां उन सूक्ष्म पर्यायों में होने वाला सद्रूप परिणमन 'वर्तना' है।67 पं. राजमल्ल जी के शब्दों में द्रव्यों में उनके अपने रूप से होने वाले ‘सत्परिणमन' का नाम 'वर्तना' है। दूसरे शब्दों में,
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तुलसी प्रज्ञा अंक 138
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