Book Title: Tulsi Prajna 2008 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 27
________________ अमूर्त व निष्क्रिय द्रव्यों में भी स्वप्रत्यय या परप्रत्यय उत्पाद-व्यय कैसे सम्भव हैं-इस प्रसंग मेंजैन आचार्यों ने अगुरुलघुगुण की चर्चा की है। इस गुण की षट्स्थानपतित हानि-वृद्धि के कारण सभी द्रव्यों में स्वप्रत्यय-उत्पाद-व्यय (परिणमन) प्रतिक्षण प्रवर्तमान रहते हैं। 80 . प्रत्येक पदार्थ में अनन्त गुण होते हैं जिनमें प्रत्येक अनन्त-अनन्त अविभागी गुणांशों से युक्त होता है। इन गुणांशों के आधार पर द्रव्य में छोटापन, बड़ापन आदि विभाग सम्भव हो पाते हैं। इन गुणांशों को अविभागी प्रतिच्छेद भी कहा जाता है। द्रव्य के अनन्त गुणों में अस्तित्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व, अगुरुलघुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व-- ये छ: सामान्य गुण हैं। जिस शक्ति के निमित्त से एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप में नहीं बदलता या एक शक्ति दूसरी शक्तिरूप में नहीं बदलती, वह अगुरुलघु' गुण है। इस गुण के अविभागी प्रतिच्छेदों के छः प्रकारों से कम होने और बढने को छ: गुनी हानि-वृद्धि कहा जाता है। ____ अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यात-गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि-- ये छ: वृद्धियां हैं। अनन्तभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणहानि और अनन्त गुण हानि-- ये छः हानियां हैं। दोनों मिल कर 'षट्स्थानपतित हानिवृद्धि' कहलाती हैं। धर्म आदि द्रव्यों में अपने-अपने अगुरुलघु गुण के परिणमन से स्वप्रत्यय उत्पाद व व्यय होता रहता है। जब किसी दूसरे के निमित्त से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आदि एक प्रदेश को छोड़ कर दूसरे प्रदेश के साथ सम्बद्ध होते हैं तब धर्म, अधर्म आदि में परप्रत्यय उत्पाद व व्यय का होना माना जाता है। अगुरुलघु गुण का पूर्व अवस्था का त्याग होने पर व्यय, उत्तर अवस्था की उत्पत्ति होने पर उत्पाद माना जाता है। सभी स्थितियों में मौलिक स्वरूप जो बना रहता है, वह 'ध्रौव्य' है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अर्थक्रिया का जो सूक्ष्म, व्यापक एवं वैज्ञानिक विवेचन जैसा जैन ग्रन्थों में मिलता है, वैसा अन्य दर्शनों में प्राप्त नहीं होता और इसमें सन्देह नहीं कि उक्त विवेचन पूर्णत: मौलिक व गम्भीर है। सन्दर्भ 1. इह यत् क्रियते कर्म, तत्परत्रोपसृज्यते। कर्मभूमिरियं ब्रह्मन् फलभूमिरसौ मता।।, महाभारत- 3/261/35 2. गायन्ति देवाः किल गीतिकानि, धन्यास्तु ते भारतभूभिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।, विष्णुपुराण, 2/3/24 26 - तुलसी प्रज्ञा अंक 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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