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को सम्मिलित किया गया है। गीता का निष्काम कर्मयोग प्रसिद्ध है ही, जो फलासक्ति आदि रहित क्रिया की कर्तव्यता का प्रतिपादन करता है।
___ इस प्रकार मोक्ष प्राप्ति के साधनों में 'क्रिया' का निरूपण प्रायः सभी दर्शनों में है। क्षणिकवादी व नैरात्म्यवादी बौद्ध दर्शन भी साधक के लिए 'अष्टांगिक मार्ग' या 'मध्यमप्रतिपदा' के रूप में पंचशील, समाधि व प्रज्ञा- इन विविध आचरणीय क्रियाओं का निरूपण करता है।
इसके अतिरिक्त क्रिया' को स्वतंत्र पदार्थ के रूप में भी मान्यता प्राप्त हुई है। उदाहरणार्थप्रमुखत: न्याय-वैशषिक दर्शन में क्रिया (कर्म) को एक स्वतंत्र पदार्थ के रूप में निरूपित कर इसके विविध भेदों का निर्देश किया गया है और किन-किन मूर्त द्रव्यों में इसका सद्भाव हैइसका भी निरूपण है। इतना ही नहीं, घड़े को पकाये जाने पर घड़े के लाल होने की प्रक्रिया जो होती है, उसको लेकर दो पृथक्-पृथक् सिद्धान्त निरूपित हुए हैं। न्यायदर्शन पिठरपाकवाद का समर्थक है और यह मानता है कि सम्पूर्ण घड़े का पूर्व वर्ण नष्ट होकर पूरे घड़े में ही लाल वर्ण उत्पन्न होता है, जबकि वैशेषिक दर्शन में पीलुपाकवाद का समर्थन हुआ है जिसके अनुसार (पीलु) परमाणुओं में ही नवीन रूप उत्पन्न होता है और क्रमश: घड़ा नवीन लाल वर्ण प्राप्त करता है।
जो दर्शन द्रव्यों/पदार्थों /तत्त्वों का वर्गीकरण करते हैं, वे यह निरूपण भी करते हैं कि अमुक तत्त्व 'निष्क्रिय' या सक्रिय है या कौन-कौन से तत्त्व सक्रिय हैं और कौन से निष्क्रिया वे इस संदर्भ में 'क्रिया' का अर्थ भी स्थूल या सूक्ष्म- दो प्रकार से करते हैं। क्रिया अर्थात् गति (देशान्तर-प्रापिका)- यह क्रिया का स्थूल अर्थ है, किन्तु तत्त्व में अन्तर्निहित परिवर्तनशीलतायह उसका सूक्ष्म व व्यापक अर्थ है। उदाहरणार्थ- सांख्य दर्शन में सामान्यत: प्रकृति 'निष्क्रिय' मानी गई है, किन्तु त्रिगुणात्मक प्रकृति में क्षोभरूप परिणमन क्रिया का सद्भाव भी माना गया है। जैन दर्शन में भी जीव व पुद्गल को गतिशील मानकर 'सक्रिय' और अन्य को निष्क्रिय माना गया है, वहां भी क्रिया का अर्थ गतिशीलता है। किन्तु उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक परिणमन रूप क्रिया के आधार पर समस्त द्रव्य ‘सक्रिय' ही हैं। इसके अतिरिक्त, सृष्टि की क्रिया, प्रलय की क्रिया आदि का विवेचन भी (सांख्य, न्याय-वैशेषिक, औपनिषदिक आदि) दर्शनों में विविध रूप से किया गया है।
संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि भारतीय दार्शनिक विचारधारा में क्रिया' एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय विषय रहा है। यहां यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि जैन साहित्य एवं-धर्म-दर्शन में 'क्रिया' का जो विस्तारपूर्वक व सूक्ष्म निरूपण हुआ है, वह अन्य दर्शनों से विशिष्ट एवं मौलिक है।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008
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