Book Title: Tulsi Prajna 2003 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ उत्तेजना बढ़ती है। जब वह स्त्राव बदलता है, हाइपोथेलेमस की क्रिया बदलती है तब ज्ञान का विकास होने लग जाता है। दोनों विरोधी ग्लैण्ड्स की प्रक्रियाएँ हमारे शरीर की संरचना में समाई हुई हैं। दोनों ग्रन्थियाँ अपना-अपना काम करती हैं, यद्यपि दोनों विरोधी हैं। 2. हमारे शरीर में खरबों कोशिकाएँ हैं। प्रति सैकण्ड पाँच करोड़ कोशिकाएँ नष्ट होती हैं और पाँच करोड़ कोशिकाएँ उत्पन्न होती हैं। यह अस्तित्व बना रहता है। जन्मना और मरना, पैदा होना और नष्ट होना । कोशिकाएँ नष्ट न हो तो शरीर मुर्दा बन जाता है। कोशिकाएँ पैदा न हों तो शरीर टूट जाता है। दोनों चालू रहते हैं, तब शरीर टिकता है। 3. मनोविज्ञान की दृष्टि से महाप्रज्ञजी ने उल्लेख किया है कि जीन में दो प्रकार की विशेषताएँ होती हैं । माता-पिता के गुण संतान में संक्रान्त होते हैं, विरोधी गुण भी संक्रान्त होते हैं। उसमें एक प्रभावी होता है और दूसरा अप्रभावी। जो प्रभावी होता है वह व्यक्त हो जाता है और जो अप्रभावी होता है, वह पर्दे के पीछे रह जाता है। कर्मवाद की यही प्रकृति है। हमारे साथ जितने कर्मों का संबंध है, उन सभी कर्मों की विरोधी प्रकृतियाँ बनी रहती हैं। जैसे सुखवेदनीय कर्म है तो दुःखवेदनीय कर्म भी है। इसी प्रकार शुभ नामकर्म-अशुभ नामकर्म, उच्च गोत्र कर्म, नीच गोत्र कर्म, शुभ आयुष्य, अशुभ आयुष्य। दोनों विरोधी प्रकृतियाँ हैं । एक प्रकृति व्यक्त होती है तब दूसरी अव्यक्त हो जाती है। हम पाते हैं कि आचार्य महाप्रज्ञ ने 'प्रतिपक्ष के सिद्धान्त' के प्रतिपादन में एक महत्त्वपूर्ण सीमा बाँधी है जिसे हम limitation कहते हैं। वह यह है कि पक्ष-प्रतिपक्ष अथवा विरोधी युगल परस्पर में विरोधी होते हुए भी सर्वथा विरोधी नहीं हैं। अत्यंत विरोध में भी साम्यता और अत्यन्त साम्यता में भी विरोध प्रकट होता है। इस सीमाकरण ने सिद्धान्त को गहराई से पुष्ट किया है। महाप्रज्ञ जी की इस सिद्धान्त के प्रति प्रतिबद्धता इन शब्दों में मुखरित हुई है __ "इस दुनिया में एक भी शब्द ऐसा नहीं है जिसका प्रतिपक्ष शब्द न हो। जिसका अस्तित्व होता है, उसका प्रतिपक्ष भी होता है। प्रत्येक वस्तु का प्रतिपक्ष है। जिसका प्रतिपक्ष न हो वह सत् नहीं होता, उसका अस्तित्व ही नहीं होता। जिस शब्द का प्रतिपक्ष नहीं है तो उसका अर्थ भी नहीं हो सकता। कल्पना करें कि यदि दुनिया में अंधकार मिट जायेगा तो प्रकाश का अर्थ भी समाप्त हो जायेगा। प्रकाश का अर्थ हम तभी समझ सकते हैं जबकि अंधकार का अस्तित्व है। यह संसार विरोधी युगलों का संसार है। सारे जोड़ें, युगल हैं और वे भी विरोधी युगल । सब कुछ द्वन्द्व हैं। द्वन्द्व के दो अर्थ होते हैं। एक अर्थ है-युगल और दूसरा अर्थ है - लड़ाई, संघर्ष, युद्ध। जो युगल होगा वह विरोधी ही होगा। समान जाति का युगल नहीं होता। स्त्री-पुरुष, नर-मादा, नित्य-अनित्य, शाश्वत-अशाश्वत, अंधकार-प्रकाश, सर्दी-गर्मी आदि-आदि युगल हैं । हम इस सत्य को मानकर चलें कि इस दुनिया में विरोध रहेगा, भिन्नता रहेगी, प्रतिपक्ष रहेगा। इसे कोई मिटा नहीं सकता। इसमें हमें नये मार्ग की खोज तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2003 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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