Book Title: Tulsi Prajna 2003 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 38
________________ प्रतिपादन किया गया। इसका उद्देश्य था समता की प्राप्ति। समता से तात्पर्य है-मन की स्थिरता, राग-द्वेष का उपशमन, सुख-दुःख में निश्चल रहना और समभाव में उपस्थित होना। कर्मों के निमित्त से राग-द्वेष के विषम भाव उत्पन्न होते हैं। उन विषमताओं से अपने-आपको हटाकर स्व-स्वरूप में रमण करना समता है। समता में साधक आत्मशक्तियों को केन्द्रित कर अपनी स्वाभाविक शक्ति को प्रकट करता है। इनकी अनुपस्थिति में ही द्वन्द्व और तनाव के वातावरण का सृजन होता है, परिणामतः प्रकृति में विकृति, व्यक्ति में तनाव, समाज में विषमता, युग में हिंसा आदि तत्त्वों का उदय होता है। इनकी निवृत्ति हेतु ही अहिंसा, समता प्रभृति सद्गुणों से युक्त श्रेष्ठ आचरण अर्थात् सामायिक-साधना सम्पन्न की जाती है। सामायिकसाधना व्यक्ति, जाति, समाज अथवा राष्ट्र तक सीमित नहीं है प्रत्युत् सभी के लिए है। इसके आचरण से जीवन के विविध पक्षों में समन्वय स्थापित होता है जिससे न केवल व्यक्तिगत जीवन का संघर्ष समाप्त होता है, प्रत्युत् सामायिक जीवन के संघर्ष भी नष्ट हो जाते हैं। फलतः शान्ति, अहिंसा, एकता प्रभृति की परिवार, समाज व राष्ट्र में पुनर्प्रतिष्ठा होती है। समत्वयोगी साधक भी वैचारिक जगत के संघर्ष के प्रति उदासीन होता है और उसमें उसकी भोगासक्ति नहीं होती है। वह तो उस उदात्त भाव का पोषक है जो 'जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त में विश्वास रखता है। समत्व को जीवन में उतारने के पश्चात् व्यक्ति चतुर्विंशतिस्तव के माध्यम से महापुरुर्षों के गुणों का उत्कीर्तन करता है और उसको जीवन में धारण करता है। इससे व्यक्ति के हृदय में आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार होता है। उसके सामने त्याग-वैराग्य की ज्वलन्त प्रतिकृति होती है जिससे उसके समस्त अवगुणों का क्षय होता है, परिणामतः वह स्वयं में निहित शक्ति का साक्षात्कार करता है। ध्यातव्य है कि ये तीर्थंकर कोई मुक्तिदाता नहीं हैं प्रत्युत् वे आदर्श मात्र हैं। इस आदर्श की छत्र-छाया में साधक को अपने में निहित शक्ति की सम्प्राप्ति हेतु स्वयं पुरुषार्थ करना आवश्यक है। इससे ही साधक की श्रद्धा परिमार्जित होती है, सम्यक्त्व विशुद्ध होता है और कष्टों को समान भाव से सहन करने की शक्ति विकसित होती है। साथ ही जीवन के सर्वोच्च आदर्श को प्राप्त करने की प्ररेणा मन में उबुद्ध होती है। तत्पश्चात् वंदना का विधान है। इसमें साधक मन, वचन और शरीर से सद्गुण, गुरु का स्तवन तथा अभिवादन करता है। वंदन से साधक का अहंकार विनष्ट होता है जिससे उसे विनय की उपलब्धि होती है। विनय से ही व्यक्ति का हृदय सरल बनता है और सरल हृदय वाला व्यक्ति ही स्वयं द्वारा कृत दोषों की आलोचना कर सकता है। सरल हृदय में ही समत्व-साधना सम्पन्न हो सकती है। इसी के निमित्त वंदना के पश्चात् आवश्यक सूत्र में प्रतिक्रमण का निरूपण हुआ है। यह जीवन को सुधारने का श्रेष्ठतम उपाय है। मानव की यह स्वाभाविक प्रकृति है कि वह अपने सद्गुणों को तो सदा स्मरण रखता है किन्तु दुर्गुणों को भूल जाता है। लेकिन जब साधक अपने जीवन का गहराई से निरीक्षण करता है तो उसे अपने जीवन में असंख्य दुर्गुण दिखाई देते हैं। इससे निवृत्ति हेतु आत्मदोषों की आलोचना आवश्यक है। आलोचना से पश्चात्ताप की भावना का उदय होता है। इसमें दोष विनष्ट हो जाते हैं। चतुर्विंशतिस्तव, वंदना तथा प्रतिक्रमण सूत्र में कायोत्सर्ग का विधान अभिहित हुआ। कायोत्सर्ग तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 20030 - 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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