________________
उसे बाह्य पदार्थों के आकर्षण क्षेत्र में लाकर उसमें एक तनाव व्युत्पन्न कर देता है जिसके परिणामस्वरूप चेतना दो केन्द्रों में बंट जाती है और दोनों ही स्तरों पर चेतना में दोहरा संघर्ष उत्पन्न होता है-प्रथम, चेतना के आदर्शात्मक पक्ष एवं वासनात्मक पक्ष में और द्वितीय उस बाह्य परिवेश के साथ जिसमें वह अपनी वासनाओं की पूर्ति चाहता है। मानव की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है जिसके प्रति वह आसक्ति रखता है वही उसके लिए 'स्व' तथा 'पर' के आविर्भाव का कारण है। नैतिक चिंतन में इन्हें 'राग' तथा 'द्वेष' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसमें 'राग' आकर्षण का सिद्धान्त है जबकि 'द्वेष' विकर्षण का। इन्हीं के कारण चेतना में सदैव तनाव, संघर्ष अथवा द्वन्द्व चलता रहता है। यद्यपि चेतना अपनी स्वाभाविक शक्ति द्वारा सदैव ही साम्यावस्था के लिए प्रयासरत रहता है। लेकिन राग और द्वेष किसी भी स्थायी संतुलन को सम्भव नहीं होने देते। यही चेतना जब राग, द्वेष से युक्त हो जाती है, तो विभावदशा/विषमता को प्राप्त होती है। चित्त की विषमावस्था ही समग्र दोषों एवं अनैतिक आचरण की जन्मभूमि है। राग-द्वेष से उत्पन्न दोष ही व्यक्ति, परिवार, समाज, देश व विश्व का अहित करता है। यही कारण है कि भारतीय नैतिकता में राग-द्वेष से ऊपर उठना सम्यक् जीवन की अनिवार्य शर्त मानी गयी है।
__ नैतिक जीवन का लक्ष्य सदैव ही उस जीवन-प्रणाली को प्रतिष्ठित करना है जिसके द्वारा एक ऐसे मानव-समाज की संरचना हो सके, जो इन संघर्षों-आंतरिक मनोवृत्तियों का संघर्ष, आंतरिक इच्छाओं और उनकी पूर्ति के बाह्य प्रयासों का संघर्ष तथा बाह्य समाजगत एवं राष्ट्रगत संघर्ष से मुक्त हो । यद्यपि ये संघर्ष मानव द्वारा प्रसूत नहीं होते तथापि उसे प्रभावित करते हैं। जीवन का आदर्श समत्व' जीवन के अंदर है। उसे बाहर खोजना प्रवंचना है। यदि जीवन में स्वयं संतुलन बनाए रखने की प्रवृत्ति विद्यमान है, तो यह स्वीकार करना होगा कि जीवन का आदर्श समत्व है जिसकी उपलब्धि मानव स्वयं के प्रयासों से कर सकता है। समत्व-प्राप्ति मानव का स्वभाव है और जो स्वभाव है, वही आदर्श है, साध्य है, साथ ही आदर्श-प्राप्ति/राग-द्वेष द्वारा व्युत्पन्न समस्त संघर्षों की समाप्ति जिस आचरण द्वारा हो, वही नैतिक आचरण है। वही नैतिक आचरण अनुकरणीय है।
विभावावस्था से स्वभावास्था की ओर प्रवृत्त होना साधना है अर्थात् बाह्य दृष्टि का परित्याग कर अन्तर्दृष्टि में प्रतिष्ठित होना साधना है। साधना में साध्य और साधक का स्थान सर्वोपरि है। आत्मा की अपूर्णावस्था ही साधकावस्था है जबकि उसकी पूर्णावस्था साध्य है। मानव की मूलभूत क्षमताएँ साध्य और साधक दोनों ही अवस्थाओं में सम रहती हैं । अन्तर इसमें क्षमताओं का नहीं, प्रत्युत् क्षमताओं को योग्यताओं में परिणत कर देने का है। यहां पर स्वाभाविक जिज्ञासा समुत्पन्न होती है कि आवश्यक सूत्र में प्रतिपाद्य आचरण का नैतिक साधना में क्या महत्त्व है ? इसके आचार पालन से मानव साधक से साध्य में परिणत होकर क्या समस्त विषमताओं से निवृत्ति पा सकता है ? इसके लिए अति उत्तम होगा कि पूर्व विवेचित षडावश्यकों पर पुनः दृष्टिपात करें। आवश्यक सूत्र में सर्वप्रथम सामायिक का 36 -
- तुलसी प्रज्ञा अंक 120-121
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org