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जैन अर्द्धमागधी आगम साहित्य में चित्रकला
- डॉ. हरिशंकर पाण्डेय
भारतीय कला-संसार में चित्रकला का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीनकाल से ही इसकी महनीयता रेखांकित है। आत्मा के माधवी भावों की मधुमय अभिव्यक्ति चित्र है। चित्र शब्द विमर्श
चुरादिगणीय चित्र-चित्रीकरणे' धातु से कर्म में अप् प्रत्यय होकर 'चित्रम्' बनता है । चिञ् धातु से अमिचिमिदिशसिभ्यः क्त्र से त्र प्रत्यय होकर नपुंसक लिंग में 'चित्रम्' शब्द बनता है। चित्रयतीति चित्रम् अर्थात् भावों की बिम्बात्मक किंवा मूर्त अभिव्यक्ति चित्र है। चीयते इति चित्रम्' अर्थात् उत्कृष्ट भावों का जिसमें चयन होता है, वह चित्र है। अमरकोशकार ने आलेख्य और आश्चर्य के अर्थ में 'चित्र' को प्रयुक्त माना है - 'आलेख्याश्चर्ययोर्चित्रम्'। यहाँ अमर कोशकार ने आलेख्य
और आश्चर्य को चित्र का पर्याय माना है, परन्तु पूरे वाक्य पर विचार करने पर 'चित्रम्' का स्वरूप भी उद्घाटित हो जाता है। वैसा आलेख्य (Painting) जो आश्चर्य किंवा आह्लाद का जनक हो, जिसमें लोकोत्तर आनन्द की प्राप्ति हो, उसे 'चित्रम्' कहते हैं।
चित्रकला का महत्त्व-चित्र कला से ऐश्वर्य एवं विभूति की प्राप्ति होती है। पाश्चात्य दृष्टिकोण में यह कला केवल कला के लिए नहीं बल्कि जीवन को आनन्दमय एवं लोकोत्तर आह्लादविलसित बनाने का सोपान है। विष्णुधर्मोत्तर (विष्णु पुराण का परिशिष्ट, समय लगभग तीसरी शती) पुराण के तृतीय खण्ड में 35 से 43 अध्याय तक 'चित्रसूत्र' प्रकरण संवादात्मक रूप में वर्णित है। वहीं पर चित्र की महत्ता विस्तार से उटुंकित है
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2003 -
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