Book Title: Tulsi Prajna 2003 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 24
________________ अनुदान का मुद्दा भी विमर्शणीय है। यह अनुदान वस्तुतः तब दिया जाता है, जब एक विशेष सेवा या वस्तु से निजी लाभों की तुलना में समाज को मिलने वाले लाभ अधिक होते हैं। अर्थशास्त्रियों का ऐसा मानना है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक और वैयक्तिक लाभों के बीच कोई विशेष अन्तर नहीं है । इस परिदृश्य में विश्वविद्यालयों के निजीकरण की माँग उठी है। उच्चतम न्यायालय भी इसके पक्ष में अपने विचार दे चुका है - शिक्षा के क्षेत्र में संसाधनों के संवर्द्धन को प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि संविधान के लक्ष्यों के संदर्भ में अधिकाधिक विकास संभव हो सके। सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत तक शिक्षा पर खर्च करने को तत्पर है, किन्तु वित्तीय घाटे के बजट में शिक्षा के साधन जुटाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है । अतएव वित्तीय बाध्यता को ध्यान में रखते हुए भी उच्च शिक्षा का निजीकरण आवश्यक हो जाता है। उच्च शिक्षा के लिए स्वतंत्रता के समय भी कई निजी संस्थाएँ थीं तथा आज भी नई स्थापित हो रही हैं। वे आत्मनिर्भरता को छोड़कर वेतन एवं रोजमर्रा के खर्चों के लिए सरकार पर निर्भर होती जा रही हैं । परिणामतः वे स्वतंत्रता, लचीलापन तथा नवाचार तो खो ही चुकी हैं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एकरूपता की शिकार भी हो रही हैं । व्यावसायिक शिक्षा हेतु प्रारम्भ हुए कुछ संस्थान राजनीति और व्यवसाय का केन्द्र बन गए हैं। यद्यपि भारत में अभी भी बड़ी संख्या में विश्वविद्यालयों के प्रारम्भ करने की व्यापक संभावना है, क्योंकि उच्च शिक्षा के योग्य आयु वर्ग में से मात्र 6 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा हेतु प्रवेश लेते हैं जबकि अमेरिका में यह प्रतिशत 50 है । मध्यम मार्ग यह हो सकता है कि सरकार केवल स्थापना हेतु अनुदान दे तथा ऐसे संस्थान प्रवेश के समय पूंजीगत अनुदान प्राप्त करें । यहाँ न्यायालय के निर्णय की बाधा उठ खड़ी होती है- - न्यायालय निर्णय के अनुसार पूंजीगत अनुदान भारतीय संविधान की धारा 14 का उल्लंघन है जो सभी भारतीयों को शिक्षा के समान अवसरों की गारंटी देती है । यद्यपि प्रथम पंचवर्षीय योजना के 28 विश्वविद्यालय, 695 महाविद्यालयों एवं 1,74,000 विद्यार्थियों की तुलना में वर्तमान में लगभग 225 विश्वविद्यालय, 8200 महाविद्यालय और 5 मिलियन छात्र हैं तथा प्रतिवर्ष लगभग 200 नये महाविद्यालय शुरू हो रहे हैं। इस गति को भी नियंत्रित करने की अपेक्षा है । जहाँ विकासशील राष्ट्रों में उच्च शिक्षा संस्थान आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक विकास के लिए मानव संसाधन तैयार करने में सक्षम होते हैं, वहाँ भारत में ये अपने लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। भारत में संख्या की वृद्धि के साथ गुणवत्ता में वृद्धि नहीं हो रही है। उच्च शिक्षा के बजट का 95 प्रतिशत केवल वेतन चुकाने में व्यय होता है, गुणवत्ता सुधार के लिए तो अवकाश ही नहीं है। दूसरी तरफ संख्यात्मक दबाव भी है जिसके लिए मूलभूत संसाधन जुटाना भी संभव नहीं है । संख्यात्मक दबाव को तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - सितम्बर, 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only 23 www.jainelibrary.org

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