Book Title: Tulsi Prajna 2003 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 31
________________ और इति दोनों है। सामायिक को धारण किये बिना कोई भी व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। समत्व-साधना में साधक जहाँ बाह्य रूप में सावध (हिंसक)प्रवृत्तियों का त्याग करता है, वहीं आन्तरिक रूप में सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव एवं सुख-दुःख, लाभहानि आदि में समभाव रखता है। लेकिन इन दोनों से भी ऊपर वह अपने विशद्ध रूप में आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्न है। 'सम' शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ और 'अयन' का अर्थ आचारण अर्थात् श्रेष्ठ आचारण का नाम सामायिक है। मन, वचन और काय की असत् वृत्तियों को रोककर अपने निश्चित लक्ष्य की ओर ध्यान को केन्द्रित कर देना सामायिक है। कर्मों के निमित्त से राग-द्वेष के विषम भाव उत्पन्न होते हैं। उन विषम भावों से अपने आपको हटाकर स्व-स्वरूप में रमण करना समता है। समता को ही गीता में योग कहा गया है जबकि आचार्य हरिभद्र लिखते हैं-"सामायिक की विशुद्ध साधना से जीव घाति कर्मों को नष्टकर केवल ज्ञान को प्राप्त करता है।'' सामायिक के मुख्य भेद हैं-द्रव्य-सामायिक और भाव-सामायिक। सामायिक ग्रहण करने के पूर्व जो विधि-विधान सम्पन्न होते हैं, वह द्रव्य सामायिक है और साधक जब आत्मभाव में स्थिर रहता है तब वह भाव-सामायिक कहलाता है। सामायिक में द्रव्य और भाव दोनों की आवश्यकता होती है। सच्ची समायिक साधना भी वही है जिसमें द्रव्य और भाव दोनों का समावेश हो। आचार्य भद्रबाहु ने भी सामायिक के तीन भेद बताएं हैं ---- सम्यक्त्व सामायिक, श्रुतसामायिक और चारित्र सामायिक।सामायिक की साधना के लिए सम्यक्त्व आवश्यक है। बिना सम्यक्त्व के श्रुत और चारित्र दोनों निर्मल नहीं होते हैं। सर्वप्रथम दृढ़ निष्ठा से विश्वास की शुद्धि होती है। सम्यक्त्व में अंधविश्वास नहीं होता।वहां भेदविज्ञान होता है। श्रुत से विचारों की शुद्धि होती है। जब विश्वास और विचार शुद्ध होता है तब चारित्रशुद्ध होता है। यद्यपि सामायिक जैन साधना की विशुद्ध साधना-पद्धति है तथापि इस साधना पद्धति की तुलना आंशिक रूप से अन्य धर्मों की साधना-पद्धति से की जा सकती है, यथा-बौद्ध और वैदिक परम्परा । बौद्ध परम्परा संस्कृति की ही एक धारा है। इस परम्परा में प्रतिपादित अष्टांगिक मार्ग में सभी के प्रारम्भ में जिस 'सम्यक्' शब्द का प्रयोग हुआ है, यथा-सम्यग्दृष्टि, सम्यक्-वाक्, सम्यक्-संकल्प, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यक्-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति और सम्यक्समाधि। बौद्ध साहित्य के मनीषियों के अनुसार वह 'सम' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि पाली भाषा में जो सम्मा शब्द है, उसके सम और सम्यक् दोनों रूप बनते हैं। यहां पर प्रयुक्त सम्यक् शब्द का अर्थ है-राग-द्वेष की वृत्तियों को न्यून करना। जब राग-द्वेष की मात्रा कम होती है, तभी साधन समत्वयोग की ओर अग्रसर होता है और राग-द्वेष से मुक्त होने के पश्चात् ही चित्तवृत्तियाँ समाधि के दर्शन में समर्थ होती हैं। संयुक्त निकाय में तथागत बुद्ध कहते हैं-जिन व्यक्तियों ने धर्मों को वास्तविक रूप में जान लिया है, जो किसी मत, वाद या पक्ष में उलझे नहीं हैं, वे सम्बद्ध हैं, समद्रष्टा हैं और विषम परिस्थितियों में भी उनका आचारण सम रहता है। सुत्तनिपात में कहा गया है-जिस प्रकार मैं हूँ, वैसे ही संसार के सभी प्राणियों को अपने सदृश समझकर आचारण करना चाहिए।' 30 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 120-121 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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