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इसी प्रकार लोक और अलोक प्रतिपक्षी युगल हैं। आकाश लोक और अलोक, इन दो भागों में विभक्त है। जिस आकाश में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय--ये पाँचों द्रव्य मिलते हैं, उसे लोक कहा जाता है और जहाँ केवल आकाश ही होता है वह अलोक कहलाता है। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय भी प्रतिपक्षी युगल है। धर्मास्तिकाय का लक्ष्य गति और अधर्म का लक्षण स्थिति (अगति) है।
यह जगत प्रतिपक्षी युगलों से भरा है या यों कहना चाहिए कि प्रतिपक्षी युगलों के अस्तित्व के कारण ही जगत का स्थायित्व है।
2. स्थानांग (ठाण) के दूसरे स्थान का प्रथम पद, द्विपदावतार के नाम से है। हम पाते हैं कि इसमें भी प्रतिपक्षी युगलों का विस्तार से वर्णन निम्न प्रकार से उपलब्ध है।
1. लोक में जो कुछ भी है द्विपदावतार (दो-दो पदों में अवतरित) होता है ---- 1. जीव और अजीव
2. त्रस और स्थावर 3. सयोनिक और अयोनिक 4. आयु सहित और आयु रहित 5. इन्द्रिय सहित और इन्द्रिय रहित 6. वेद सहित और वेद रहित 7. रूप सहित और रूप रहित 8. पुद्गल सहित और पुद्गल रहित 9. संसार समापन (संसारी), 10. शाश्वत और अशाश्वत __ असंसार समापन्नक (सिद्ध) 11. आकाश और नोआकाश 12. धर्म और अधर्म 13. बन्ध और मोक्ष
14. पुण्य और पाप 15. आश्रव और संवर
16. वेदना और निर्जरा 3. नन्दी सूत्र में श्रुत के चौदह विकल्प बताए हैं1. अक्षर-श्रुत
2. अनक्षर-श्रुत 3. संजी-श्रुत
4. असंज्ञी-श्रुत 5. सम्यक्-श्रुत
6. मिथ्या-श्रुत 7. आदि-श्रुत
8. अनादि-श्रुत 9. सपर्यवसित-श्रुत
10. अपर्यवसित-श्रुत 11. गमिक-श्रुत
12. अगमिक-श्रुत 13. अंग प्रविष्ट-श्रुत
14. अनंग प्रविष्ट-श्रुत महाप्रज्ञजी उपरोक्त आगमों के वर्णन को इस दृष्टि से देखते हैं कि जैन दर्शन ने विरोधी युगलों का सह-अस्तित्व स्वीकार किया, इसलिए वह सर्वग्राही दर्शन हो गया। वह किसी भी विचारधारा को असत्य की दृष्टि से नहीं देखता किन्तु सापेक्ष-सत्य की दृष्टि से देखता है। जितने विचार हैं वे सब पर्याय हैं और पर्याय निरपेक्ष-सत्य नहीं हो सकता। निरपेक्ष-सत्य तो
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2003 0
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