Book Title: Tulsi Prajna 2003 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ तात्पर्य है – निश्चय नय से गुरु स्थानीय होने पर भी जगत का व्यवहार, व्यवहार नय के बिना नहीं चल सकता। इसी प्रकार 'जलधि शांत है वहीं तरंगित', 'जैसे-जैसे निकट-निकट प्रभु, वैसे-वैसे लगते दूर', 'मरूदेवा मर अमर हो गई', 'दृश्य ले गया है सहसा दिनकर'। तीव्र रश्मि से बना अदृश्य आदि अनेकशः विरोधाभाषी अलंकारों का सुन्दर निदर्शन ऋषभायण में मिलता है । अनेकान्त दृष्टि से यह अलंकार शब्द और अर्थ की अनेक अर्थ - छवियों का अद्भुत सृजन करने में सक्षम है। साध्वी श्री के उपरोक्त लेखन के अतिरिक्त महाप्रज्ञ जी लिखते हैंअनेकान्त ने सूक्ष्म और स्थूल - दोनों नियमों की व्याख्या की है और दो कोण हमारे सामने प्रस्तुत किये। एक कोण - निश्चय नय और दूसरा कोण है- -व्यवहार नय । यदि सूक्ष्म सत्यों को जानना हो तो निश्चय नय का सहारा लें और स्थूल नियमों को जानना हो तो व्यवहार नय का सहारा लें। जब ये दोनों सापेक्ष होते हैं, समन्वित होते हैं तब हम सच्चाई तक पहुँच जाते हैं कि भेद और अभेद भिन्न-भिन्न नहीं किन्तु समन्वित रहते हैं । - हम जानते हैं कि जैन दर्शन में पदार्थ को पुद्गल कहा है। पुद्गल वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाला है। आठ स्पर्श, जो परस्पर में संयोग-वियोग के कारण हैं, वे चार विरोधी- युगल रूप हैं। स्निग्ध- रूक्ष, हल्का - भारी, शीत-उष्ण, मृदु-कर्कश । समूची पौद्गलिक सृष्टि का निर्माण इन विरोधी-युगल स्पर्शो से होता है। जितने भी स्थूल पुद्गल - पदार्थ हैं उसमें ये आठों स्पर्श होते हैं, जो स्कन्ध को स्थायित्व प्रदान करते हैं । यह कितना रहस्यमय है कि वस्तु के निर्माण में विरोधी - युगल स्पर्शो का होना आवश्यक है। आचार्य महाप्रज्ञ ने अस्तित्वगत इस सत्य को इस विविधता से प्रतिपादित किया है कि अब इसका स्वरूप एक सिद्धान्त के रूप में प्रकट होता है। अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि " महाप्रज्ञ का प्रतिपक्ष का सिद्धान्त" ने दर्शन जगत को महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। विज्ञान जगत में परम्परा है कि जो नई खोज करते हैं उन्हीं के नाम से वह सिद्धान्त प्रचलित हो जाता है। महाप्रज्ञजी की यह विलक्षणता है कि उन्होंने इस सिद्धान्त के अनुरूप शरीर शास्त्र के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। - 1. शरीर शास्त्र के अनुसार वे लिखते हैं – शरीर में दो केन्द्र हैं। एक- ज्ञान केन्द्र और दूसरा है-काम-केन्द्र । दोनों विरोधी हैं । काम-केन्द्र चेतना को नीचे ले जाता है। ज्ञान - केन्द्र चेतना को ऊपर ले जाता है। एक है अधोगमन और दूसरा है ऊर्ध्वगमन । चेतना का नीचे का अवतरण और चेतना का ऊर्ध्व अवतरण, दोनों विरोधी हैं । यही जीवन को टिकाये हुए हैं। विज्ञान की भाषा में ज्ञान - केन्द्र और काम-केन्द्र के वाचक दो ग्लैण्ड्स हैं। एक है - पीनियल और पिच्यूटरी – ये दोनों ज्ञान के विकास की ग्रन्थियाँ हैं और दूसरा है – गोनाड्स – यह काम विकास की ग्रन्थि है । हमारी चेतना का विकास पिनियल और पिच्यूटरी के विकास पर निर्भर है । पिच्यूटरी और पिनियल का स्राव जब गोनाड्स को मिलता है तब काम की 8 तुलसी प्रज्ञा अंक 120-121 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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