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तित्थोगाली पइन्नय ]
तपिभिह मागंतु, माणुसरूनं समासिया तह य । जिण जणणीओ सेवंति, देवया उ च जयेणं । १२७ । (तत्प्रभृति आगत्य मानुषरूपं समाश्रिताः तथा च । जिन - जननीन् सेवन्ति, देवतास्तु च यत्नेन : )
उसी समय से (देवेन्द्रों के लौटते ही ) देव देवियां मनुष्य रूप धारण कर बड़े यत्न के साथ तीर्थङ्करों की माताओं की सेवा करने लगीं । १२७ ।
सक्का देसेण तया नाणाविहपहरणा इहिं जिणवरिंदे |
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रक्खंति हट्ठतुट्ठा, दससुविखे सु देवीओ | १२८ | ( शक्रादेशेन तदा, नानाविधप्रहरणादिभिः जिनवरेन्द्रान् । रक्षन्ति हृष्ट तुष्टाः, दशष्वपि क्षेत्रेषु देव्यः । )
शक की आज्ञानुसार दशों ही क्षेत्रों में देवियां हृष्ट तुष्ट हो दशों गर्भस्थ तीर्थङ्करों की प्रहारादि प्रवृत्तियों एवं सब प्रकार के अनिष्टों से रक्षा करती हैं । १२८ । संपुण्ण दोहलाओ, विचित्त सयणासणीउ सच्चाउ | अप्प हियं आहार, सेवंति मणा कूलं तु । १२९ । (सम्पूर्ण दोहदाः, विचित्र शयनासन्यः सर्वास्तु | अल्पं हितमहारं, सेवन्ति मनोऽनुकूलं तु । )
तीर्थङ्करों की उन दशों माताओं के उत्तमोत्तम अद्भुत शय्याआसनादि थे । उनके समस्त दोहदों की तत्काल पूर्ति हो गई । वे सब अपने मन के अनुकूल (यथेच्छ ) अल्प और हितकारी प्रशन पानादि ग्रहण करती थीं । १२६
ववगय सोगभयाउ, वहमाणीउ सुहेहिं ते गभे । पत्तो वि पसवमासे, अवत गूढगभाओ | १३० । (व्यपगतशोकभयाः वहमाना सुखैस्तान् गर्भान् । प्राप्तेऽपि प्रसवमासे, अव्यक्तगूढगर्भास्तु | )
३ देवता- देवत्व न । देवभ। वे स्थानांग, ठा., उ ४ । देवया इन्द्रादि देवेषु । स्था.