Book Title: Titthogali Painnaya
Author(s): Kalyanvijay
Publisher: Shwetambar Jain Sangh

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Page 387
________________ ३६० ] [तित्थोगाली पइन्नय नाणं च चरित्रमुत्तम,-तुब्भे पुव्वपुरिसाणु दिण्णं । लग्गति जे य पुरिसा, मग्गं निव्वणगमणस्स ।११९७. ज्ञानं च चारित्रमुत्तमं, युष्मभ्यं पूर्वपुरुषानुदत्तम् । लग्नन्ति ये च पुरुषाः, मार्ग निर्वाणगमनस्य ।) पूर्व पुरुषों द्वारा तुम्हें प्रदत्त अर्थात बताये हुए मोक्षगमन के मार्ग उत्तम ज्ञान और चारित्र में जो पुरुष अग्रसर होते हैं (वे धन्यहैं) ।११६७। तह तह करेह सिग्धां, जह जह मुच्चह कसाय-जालेण : किसलदलग्गसंठिय, जललव इव चंचलं जीयं ।११९८। तथा तथा कुरुत शीघ्र तथा यथा मुच्यते- कषाय जालेन । किसलय दलाग्र संस्थित, जल लवेव च चंचल जीवितम् ।) शीघ्रता पूर्व उस तरह के सब प्रयास करो, जिनके द्वारा कषायों के जाल से मुक्त हो सको क्योंकि किसो पौध के पत्ते पर पड़े जल-करण के समान जोवन अतोव चञ्चल अर्थात् क्षण विध्वंसी है।११६८। धण्णाणं तु कसाया, जगडिज्जंता वि अण्णमन्नं हिं । . नेच्छंति समुठेउ, सुणिविट्ठो पंगुलो जेव ११९९। धन्यानां तु कषायाः, जागृह्यमाना अपि अन्योन्यैः । नेच्छन्ति समुत्थातु, सुनिविष्टः पंगुलः यथैव ) धन्यभाग्य प्राणियों के कषाय परस्पर एक दूसरे द्वारा जगाये जाते रहने पर भी अच्छी तरह सुख पूर्वक बैठे हुए पंगु की तरह उठने की इच्छा नहीं करते ।११६६ उवसाममुवणीयं, गुणमहयाजिणचरित्त सरिसं पि । पडिपाएंति कसाया, किं पुण सेसे सरागत्थे ।१२००। (उपशममुपनीतं, गुणमहत्तया जिनचरित्रसदृशमपि । प्रतिपातयन्ति कषायाः, किं पुनः शेषान् सरागस्थान् ।)

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