Book Title: Titthogali Painnaya
Author(s): Kalyanvijay
Publisher: Shwetambar Jain Sangh

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Page 393
________________ । तित्थोगाली पइन्नय (भ्रष्टेन चारित्रात्, सुष्टुतरं दर्शनं गृहीतव्यम् । सिद्धयन्ति चरणहीनाः, दर्शनहीना न सिद्धयन्ति ।) यदि कदाचित् कोई व्यक्ति दुर्भाग्यवशात चारित्र से भ्रष्ट भी हो जाय तो उसे दर्शन को अच्छी तरह दृढ़ता पूर्वक पकड़ लेना चाहिए। क्यों कि चारित्र से होन व्यक्ति सद्ध (कर्मबन्ध से विमुक्त हो जाते हैं किन्तु दर्शन हीन व्यक्ति कभी सिद्ध नहीं होते ।१२१८ एत्थ य संका कंखा. वितिगिच्छा अन्नदिठिय पसंसा। परतित्थिय संथव्वो, पंच हासंति सम्मत्तं १२१९। (अत्र च शंकाऽऽकांक्षा, विचिकित्सा अन्य दृष्टिक प्रशंसा । परतीर्थिक संस्तवः, पञ्च हासन्ति सम्यक्त्वम् ।) यहां (यह बात ध्यान में रखने योग्य है. कि) शंका आकांक्षा, विचिकित्सा (संशय), अन्य दर्शन को मानने वालों की प्रशसा और परतीथिकों की स्तुति-ये पांच दोष सम्यक्त्व का ह्रास करने वाले हैं । १२१६। संक्रादि दोसरहियं, जिण सासण कुमलयाइ गुण जुत्तं । एवं तं जं भणियं, मूलं दुविहस्स धम्मस्स १२२०।। (शंकादि दोष रहितं, जिनशासन कुशलतादि गुणयुक्तम् । एतत्तद्गद् भणितं, मूलं द्विविधस्य धर्मस्य ।)... शंका, आकांक्षादि दोषों से सर्वथा दूर रहना और जिनशासन में प्रगाढ़ निष्ठा रखते हुए जिनाज्ञानुसार आचरण-प्रचार प्रसार आदि गुणों से युक्त कौशल प्रकट करना यही दो प्रकार के धर्म (श्रमण धर्म और श्रावक धर्म) का मूल बताया गया है ।१२२०॥ जिण सासणे कुसलया, पभावणा य तणसेवणा य । विरति भत्ती य गुणा, सम्मत्त दीवगा उत्तमा पंच ।१२२१। (जिन शासने कुशलता, प्रभावना च तृणसेवना च । ..... विरतिः भक्तिश्च गुणाः, सम्यक्त्वदीपका उत्तमा पञ्च ।)

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