Book Title: Titthogali Painnaya
Author(s): Kalyanvijay
Publisher: Shwetambar Jain Sangh

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Page 401
________________ ३७४ ] [तित्थोगाली पइन्नय (यत्र चैकः सिद्धा. तत्र अनन्ताः भवरजोविमुक्ताः ।। अन्योऽन्यं समवगाढाः. स्पृष्टाः लोकान्ताः लोकान्ते ) उस ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी पर जहां एक सिद्ध है, वहां जन्ममरण रूपी भव की रज से सर्वथा विमुक्त अनन्त सिद्ध हैं। लोक (संसार) का अन्त कर देने वाले वे अनन्त सिद्ध लोकान्त अथात् लाक के अग्रभाग पर एक परस्पर एक दूसरे से समवगाढ़ और स्पृष्ट हैं । १२४३ (ब) फुसई अणंते सिद्धे, सव्व पदेसेहिं नियमसो सिद्धा । ते वि असंखेज्जगुणा, देस पदेसेहिं जे पुछा ।१२४४। (म्पृशन्ति अनन्तान् सिद्धान् सर्व प्रदेशैः नियमशः सिद्धाः । तेऽपि असंख्यात गुणिताः, देशप्रदेशैर्ये स्पृष्टाः।) नियमतः सिद्ध अपने सर्व प्रात्म प्रदेशों से अनन्त सिद्धों को स्पर्श करत हैं. इनके अतिरिक्त उनके द्वारा जो सिद्ध उनके देश अर्थात् कतिपय आत्म प्रदेशों से स्पृष्ट हैं वे सर्वात्म प्रदेशों से स्पृष्ट सिद्धों से असंख्यात गुना अधिक हैं । १२४४। केवलनाणुवउत्ता, जाणंति सव्वभावगुणभावे । पासंति सब्बतो खलु, केवलदिट्ठी अणंताहिं ।१२४५। (केवलज्ञानोपयुक्ताः, जानन्ति सर्वभाव गुणभावान् । पश्यन्ति सर्वतो खलु, केवलदृष्ट्या अनन्ताभिः ।) केवल-ज्ञान में उपयुक्त वे लोकालोक के त्रिकालवर्ती भूत, भविष्यत् और वर्तमान सभी भावों और गुणों को जानते तथा अनन्त केवल-दृष्टि द्वारा सब देखते हैं ।१२४५। न वि अस्थि माणुसाणं, तं सोक्खं न वि य सव्व देवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वावाहं उबगताणं ।१२४६।

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