Book Title: Titthogali Painnaya
Author(s): Kalyanvijay
Publisher: Shwetambar Jain Sangh

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Page 403
________________ ३७६ ] [ तित्थोगाली पइन्नय ( यथा नाम कोऽपि म्लेच्छ:, नगर गुणान् बहुविधानपि जानन् । न शक्यते परिकथयितुं उपमायास्तत्र अभावात् ।) जिस प्रकार कोई म्लेच्छ ( वर्षों तक एक समृद्ध नगर में राजा का अतिथि रहकर पुन अपने म्लेच्छ बन्धुनों के बीच म्ल ेच्छ देश में जावे तो वह नगर के बहुत से गुणों प्रथवा सुखों का भली भांति जानता हुआ भी उनका कथन करने में असमर्थ ही रहता है, क्यों कि उसके उस म्लेच्छ देश में नगर के गुरणों का अथवा सुखों का वर्णन करने के लिये कोई उपमा ही नहीं है । १२४६ । इय सिद्धाणं सोक्खं, अणोत्रमं नत्थि तस्स उवमंउ । किंचि विसेसेणेत्तो, सारिक्खभिणं सुणह वोच्छं १२५० । ( एवं सिद्धानां सौख्यं, अनुपमं नास्ति तस्य उपमा तु । किंचित् विशेषेण इतः सादृश्यमेतस्य शृणुत वक्ष्यामि । ) इसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है, उसको बताने के लिये समस्त संसार में कोई उपमा है ही नहीं । इस से मिलता जुलता पर कुछ विशेष दृष्टान्त मैं बताऊंगा, उसे सुनो। १२५० । जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत ण भोयण कोइ । aunt छुहाविक्को, अच्छेज्ज जहा अभिय तित्तो । १२५१ । ( यथा सर्वकामगुणिकं, पुरुषः क्त्वा भोजनं कोऽपि । तृष्णा क्ष ुधाविमुक्तः, तिष्ठेत् यथा अमित तृप्तः । ) जिस प्रकार कोई पुरुष पुष्टि तुष्टि आदि सबै प्रकार के गुणों से सम्पन्न अत्यन्त स्वादु भोजन खाकर तृष्णा तथा क्षुधा से विमुक्त हो पूर्णतः तृप्तावस्था में बैठता है । १२५१ । इय निच्चकालतिचा, अतुलं निव्वाणमुवगता सिद्धा । सासय मन्याचाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता | १२५२ ।

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