Book Title: Titthogali Painnaya
Author(s): Kalyanvijay
Publisher: Shwetambar Jain Sangh

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Page 388
________________ तिथ्योगाली पइन्नय 1 [ ३६१ गुणों में महानता को दृष्टि से वीतराग के चरित्र की तुलना करने वाल े उपशम को प्राप्त चतुर्दश- पूर्वघर को भी कषाय नीचे की श्रोर गिरा देते हैं, राग में फंसे शेष लोगों की बात ही क्या है | १२००० सामन्नमनु चरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होंति । , मन्नामि उच्छु पुप्फंच, निष्फलं तस्स सामइयं । १२०१ | ( श्रामण्यमनुचरतः, कषाया यस्य उत्कटाः भवन्ति । मन्ये इक्षुपुष्पमिव, निष्फलं तस्य सामायिकम् ।) श्रमण धर्म का परिपालन करने वाले व्यक्ति के अन्तर भी यदि कषाय सक्रिय होते हैं तो उस व्यक्ति की सामायिक को मैं गन्ने के फूल के समान निष्फल ही मानता हूँ । १२० १॥ जं अज्जि यं चरितं, देसूणाए पुव्वकोडीए । तंपि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेणं । १२०२ । (यद् अर्जितं चारित्रं देशोनया पूर्वकोट्या । तदपि कषायितमात्रः, नाशयति नरो मुहूर्त्तेन ।) किंचित् न्यून - एक करोड़ पूर्व काल तक - श्रमण धर्म का पालन कर जो चारित्र अर्जित किया जाता है, किसी भी एक कषाय को मन में उत्पन्न कर मानव एक ही मुहूर्त में उस समस्त चारित्र को नष्ट कर डालता है । १२०२ । उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायं चाज्जव भावेणं, लोभं संतुट्टिए जिणे । १२०३ । ( उपशमेन हन्यात् क्रोध, मानं मार्दवेन जयेत् । मायां च ऋजुभावेन, लोभं संतुष्टिना जयेत् । ) क्रोध को उपशम भाव अर्थात् शान्ति के द्वारा नष्ट करे, मान को मार्दवता - कोमलता से जीते, मांया को ऋजुभाव अर्थात् सरलता । से और लोभ को संतोष भाव से जीते । १२०३ ।

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