Book Title: Titthogali Painnaya
Author(s): Kalyanvijay
Publisher: Shwetambar Jain Sangh

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Page 374
________________ तित्थोगाली पइन्नय । | ३४७ सुषम दुःषम नामक चतुर्थ प्रारक में धर्म ( धर्माचरण) विद्यमान रहेगा । (तदनन्तरं धर्मचरण रहित यौगलिक भोगयुग का प्रादुर्भाव - होगा ।। ११५४। [ स्पष्टीकरण:-- ८३, ६६ ५- पूर्व हैं या पूर्वांग अथवा वर्ष - यह विचारणीय है । इस प्रश्न पर विचार करते समय ध्यान में रखना होगा कि इस अवसर्पिणी के सुषम दुःषम प्रारक के ८४ लाख पूर्व, ३ वर्ष और साढे आठ मास शेष रहने पर भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ । २० लाख पूर्व तक वे कुमारावस्था में रहे । ६३ लाख पूर्वं तक उन्होंने राज्य किया, १ लाख पूर्व तक साधक जीवन व्यतीत किया, १ हजार वर्ष कम १ लाख पूर्व तक वे तीर्थेश्वर रहे और इस प्रकार सुषम दुःषम प्रारक की समाप्ति १००३ वर्ष साढ़े आठ मास कम एक लाख पूर्व (काल) पहले ही धमतीर्थ का प्रवर्तन हो चुका था । जाव य पउमजिविंदो, जाव य विजओ वि जिणवरो चरिमो । इय सागरोवमाणं कोड़ा कोडी भवे कालो ११५५ । ( यावच्च पद्मजिनेन्द्रः, यावच्च विजयोऽपि जिनवरश्चरमः । एवं सागरोपमानां कोट्याकोटि ः भवेत् कालः । ) आगामी उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर महापद्म से अन्तिम (२४ वें ) तीर्थ कर भगवान् विजय तक एक कोटाकोटि सागरोपम काल होता है । ११५५ । [ स्पष्टीकरण :- भगवान् ऋषभदेव से महावीर के निर्वारण तक का काल ४२ हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम और ८४ लाख पूर्व था - इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए यह गाथा भी विचारणीय है || उस्सप्पिणी इमीसे, दूसम सुसमा उ वणिया एसा । अरगो य गतो तड़यों, चउत्थमरगं तु वोच्छामि । ११५६ ( उत्सर्पिण्या इमायाः, दुःषम- सुषमा तु वर्णिता एषा । आरकश्च गतः तृतीयः, चतुर्थमारकं तु वक्ष्यामि ।) ताराङ्किते द्व ेऽपि ( ११५४ - ५५ ) गाथे विचारणीये ।

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