Book Title: Titthogali Painnaya
Author(s): Kalyanvijay
Publisher: Shwetambar Jain Sangh

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Page 359
________________ [ तित्थोगाली पइन्नय बहुत से केवलियों, मनः पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान की ऋद्धि से सम्पन्न श्रमणों के समूह से परिवृत्त सेवित वे त्रिभुवननाथ तीर्थंकर (अपने अपने क्षेत्रों में) विचरण करें गे । ११०६ । वड्ढति जणवयवंसो, * नलिणिकुमार रायवंसो उ । सब्भावो वि य वड्ढति, एवं कालाणुभावेण १११० । (वर्द्धते जनपदवंशः, नलिनीकुमार राजवंशस्तु । सद्भावोऽपि च वर्द्धते, एवं कालानुभावेन । ) ३३२ ] -- इस प्रकार उत्सर्पिणी काल के ऊर्ध्वगामी वर्द्धमान काल प्रभाव से, जनपदों की संख्या -श्री-समृद्धि नलिनी कुमार का राजवंश और सद्भाव ( आगमज्ञान - सम्यग्ज्ञान ) की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होगी । १११० C निविय कम्मजालो, कत्तिय बहुलस्स चरम रातीए । सिज्झिहिति नाम पउमो अण्णाए पावा नगरीए । ११११ । , ( निष्ठापित कर्मजाः, कार्तिक बहुलस्य चरम रात्रौ । सेत्स्यति नाम पद्मः, अन्यायां अपापा नगर्याम् । ) अन्त में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के आगामी उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर महापद्म कार्तिक की मास के कृष्ण पक्ष की अन्तिम रात्रि में शेष अघाती चार कर्मों के जाल को भी पूर्णतः समाप्त कर अपर अपापा नगरी में सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होंगे । ११११ । नव विवासे से सिद्धत्थादीय जिणवरिंदाउ | , साइंमि जोग - जुत्ते, कत्तिय बहुलस्स अंतम्मि १११२ । ( नवस्वपि वर्षेष्वेवं, सिद्धार्थादयश्च जिनवरेन्द्रास्तु | स्वाती योगयुक्त, कार्तिक बहुलस्य अन्ते ।) 1 इसी प्रकार ढाई द्वीप के शेष चार भरत तथा पांच ऐरवत-इन क्षेत्रों में भी सिद्धार्थ आदि उत्सर्पिणी काल के 8 प्रथम तीर्थंकर * प्राहोर ग्रामस्थ श्री राजेन्द्रसूरि ग्रन्थागारादुपलब्ध प्रतो तु 'वड्ढति जिरणवयरणवसो " - इति पाठः विद्यते ।

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