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तित्वोगाली पइन्नघ
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-स्थूलभद्र ने विद्युत् के समान वर्ण वाली कोशा से पूछा। कोशा ने कहा- “स्वामिन् । राजभवन से आप शीघ्र ही लौटें। मैं आपके विछोह को क्षण भर भी सहन करने में समर्थ नहीं हूँ।७८०। भवणा रोह विमुक्को, छज्जइ चंदो व्व सोमगंभीरो । परिमलसिरि वहतो, जोण्हा निवहं ससी चेव ।७८१।। (भवनारोह विमुक्तः, छाजते चन्द्र इव सोमगम्भीरः । परिमलश्रियं वहन् , ज्योत्स्नानिवहं शशी चैव ।)
___ भवन की सोढियों से उत्तरता हुआ परिमल. की शोभा को धारण किये हुए यह ज्योत्स्ना पुंज रजनीश के समान तथा अमृत के संसर्ग से गम्भीर बने चन्द्र की तरह सुशोभित हो रहा था ७८१॥ भवणाउ निग्गो सो, सारंगे परियणेण वुढितो । मत्तवर वारणगओ, इह पत्तो राउलं दारं ७८२। (भवनात् निर्गतः स, सारंगे परिजनेन वा पितः । मत्तवरवारणगत, इह प्राप्तः राजकुलद्वारम् ।)
कोशा-भवन से बाहर आने के पश्चात् राजपथ पर परिजनों द्वारा वार्डापित किया जाता हुआ मदोन्मत्त गजराज की सी गति से चलता हुआ राजभवन में पहुँचा ७८२। अंते उरं अइगतो, विणीय विणओ परित्त संसारो । काऊण य जय सद्दो, रण्णो पुरओ ठिओ आसी ।७८३। (अंतेपुरं अतिगतः, विनीत विनयः प्ररिक्त संसारः । कृत्वा च जय शब्दं, राज्ञः पुरतः स्थित आसीत् ।)
संसार के आकर्षणों के प्रति उदासीन यह बड़े विनय के साथ नन्दराज के अंतेपुर में पहुंचा। "जय" शब्द का उच्चारण कर यह राजा के सम्मुख बैठा ।७८३। अह भणइ नंदराया, मंति पयं गिण्ह थूलभद्द महं । पडिवज्जसु तेवट्ठाई, तिण्णि नगरागरसयाई ७८४।