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[ तित्योगाली पइन्नय इस प्रकार धवल पक्ष के चन्द्रमा की तरह वृद्धि को ओर अग्रसर लोक एवं काल में उस समय के मनुष्यों की सहसा ही मनःशुद्धि होती है ।६६६। विज्जाण य परिबुड्ढी, पुष्फ फलाणं च ओहीणं च । आउय सुह रिद्धीणं, संटाणुश्चत्त धम्माणं ।९९७। (विद्यानां च परिवृद्धिः, पुष्पफलानां चौषधीनां च । . आयुश्च सुखऋद्धीणः, संस्थान-उच्चत्व-धर्माणाम् ।)
विद्याओं, पूष्प-फलों, औषधियोंः प्राय, सुख, समद्धि. संस्थान, उत्सेध (ऊंचाई) और धर्म- इन सब की उत्तरोत्तर अभिवद्धि होगी ।६६७ दूसमकालो होही, एवं एयं जिणो परिकहेइ । दूस्समसुस्सुमकाले, पवड्ढमाणं असो वेति ९९८॥ दुःषमकालेः भविष्यति, एवं एतत् जिनः परिकथयति । दुःपम सुष्षम कालं प्रबद्ध मानं अतः ब्रुवन्ति ।)
इस प्रकार का दुष्षम काल होगा-ऐसा जिनेश्वर. कहते हैं। दृष्षमसूषम काल को इसी लिये प्रवर्द्धमान काल कहा जाता है।६६८ पन्नयनदीण वुड्ढी, वुड्ढी विनाण नाण सोखाणं । छण्ह वि रिऊण वुड्ढी, दससु वि वासेसु बोधव्या ।९९९। (पर्वतनदीनां वृद्धिः, वृद्धिर्विज्ञानज्ञानसौख्यानाम् । षण्णामपि ऋतूनां वद्धिः, दशस्वपि वर्षेषु बोद्धव्या ) ....
उत्सर्पिणी काल के उस दुःषम-सुषम आरक में दशों ही क्षेत्रों में पर्वतों तथा नदियों की वृद्धि होगी। विज्ञान, ज्ञान एवं सौख्य की वृद्धि होगी। छहों ऋतुओं के प्रभाव गुण आदि में भी अभिवृद्धि होगी ।६६। धण सत्तरसंवण्णं, फलाई मूलाई सम्वरुक्खाणं । खजूर दक्ख दाडिम, फणसा तउसा य वदंति ।१०००।